वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1119
From जैनकोष
प्रशाम्यति विरागस्य दुर्वोधविषमग्रह:।
स एव वर्द्धतेऽजस्रं रागार्तस्येह देहिनाम्।।1119।।
विराग पुरुष के दुर्वोधविषमग्रह का प्रशमन:― जो विराग पुरुष है, जो रागभाव को अपनाता नहीं है वह भी विराग हे और जिसका रागभाव उत्पन्न नहीं होता वह भी विराग है। रागभाव होता है आत्मा में और यह ज्ञान अपने ही अंदर अवस्थित होकर अपनी ही ओररहे तो यह राग नहीं होता। में मात्र ज्ञानस्वरूप हूँ, वह भी विराग है। जैसे कहीं बाहर कोई चीजें रखी हैं और उन्हें अपनाये नहीं तो वह उसकी ईमानदारी है, विवेक की बात है, विरक्त है, ऐसे ही आत्मभूमिका पर कर्म के और विकार के निमित्तनैमित्तिक संबंध के कारण रागविकार उत्पन्न हो गया लेकिन यह ज्ञान उस राग को ग्रहण न करे तो वह भी विराग है। बाहर में रहने वाले पदार्थों को ये भिन्न हैं, विनाशीक हैं ऐसा निरखने वाले बहुत हो सकते हैं पर अपनी आत्मभूमिका पर जो विकारभाव आया है, ये भिन्न हैं, पर हैं, न्यारे हैं, मैं इनके अंदर स्वरक्षित केवल अपने स्वरूप मात्र हूँ, ये बाह्य भाव हैं ऐसा जो जानते हैं वे पुरुष बिरले ही हैं। दूसरे की कषाय देखकर मन में हँस जाना यह बात लोगों को कितनी सुगम लग रही है। कोई पुरुष अभिमान कर रहा, घमंड की बात बगरा रहा उसे सुनकर दूसरे लोग कैसा मन में उपहास करते हैं। कैसा अज्ञान का भूत चढ़ा है? इसी प्रकार अपने में ये कषायें जगती है और उन पर उपहास कर लेयह ज्ञान। क्या हो गया? निमित्तनैमित्तिक संबंध से होता है यह। यह मेरे में नहीं होता। देखिये ज्ञान का और राग का आधार एक ही है किंतु भेदविज्ञान को ऐसी क्षमता है कि कहने मात्र की बात नहीं कह रहे किंतु स्पष्ट उसे भिन्न नजर आ रहा। यह राग है मैं ज्ञानरूप हूँ, यह कैसा अपनी ओर मुड़ गया है। यह ज्ञानी उन रागादिकों को अपनाता नहीं है। तो ऐसा जो विरागपुरुष है उसके अज्ञानरूपी विषम गृह शांत हो जाते हैं। और जब राग से पीड़ित होता है, रूप से अपने को जुदा नहीं समझ पाता, इसी के मायने है राग से पीड़ित होना, राग में आसक्त होना अपने को रागरूप अनुभवना। इस प्रकार जो राग से पीड़ित पुरुष है उसके निरंतर अज्ञानरूपी विषमगृह बढ़ता रहता है। अपना भविष्य अपने आप पर निर्भर है इतनी विशुद्ध परिणति जगे तो हमारा भविष्य उत्तम है और परभावों को अपनाने रूप ही वृत्ति बने तो संसार में रुलने का ही काम है। धन्य है वह तत्त्वज्ञान, धन्य है वे ज्ञानी पुरुष, साधु हो अथवा गृहस्थ, प्रशंसा तो ज्ञान की है ना। तो बाहरी भेष के इन अनुरागों से कोई फर्क नहीं जँच रहा, वहाँ दृष्टि ही नहीं दे रहा, वह तो उस सम्यक्त्व किरण पर दृष्टि दे रहा है कि जिस सम्यक्त्व के प्रताप से एक ही आधारभूत आत्मा में उत्पन्न हुए रागादिक विकारों से अपने को न्यारा समझ रहा है। उस तत्त्वज्ञान की उपासना में है यह भक्त। धन्य है वह तत्त्वज्ञान। और एक दृष्टि से अगर निरखो तो जिन्होंने घर बार छोड दिया परिग्रह छोड दिया ऐसे साधु संत विकार भावों से छुट्टी पाकर अपनी ओरलग गये, उनका जितना आंतरिक तपश्चरण बन रहा उससे कई गुना आंतरिक तपश्चरण इस गृहस्थ तत्त्वज्ञानी के बन रहा है कि इतना समागम है पास, ऐसा साधन है, घर में बस रहा है, सब कुछ समस्यायें हैं तिस पर भी समस्त रागादिक विकारों से अपने को न्यारा जानकर अपने आपमें ही तृप्त रहा करता है।