वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 113
From जैनकोष
आरब्धा मृगबालिकेव विपिने संहारदंतिद्विषा,
पुंसां जीवकला निरेति पवनव्याजेन भीता सती।
त्रातुं न क्षमसे यदि क्रमपदप्राप्तां वराकीमिमा,
न त्वं निर्धृण लज्जसेत्र जनने भोगेषु रंतुं सदा।।113।।
श्वास के ब्याज से जीवनकला का निर्गमन― हे पर्यायमुग्ध प्राणी ! देख, जिस प्रकार वन में मृग के बच्चे को सिंह पकड़ने का आरंभ करता है और वह मृग बालक भयभीत होकर भागता है ऐसे ही समझ कि इस जीव के जीवन की कला कालरूपी सिंह से भयभीत होकर श्वासोच्छवास के बहाने से दूर भाग रही है। जैसे मृग बालिका पर सिंह का आक्रमण होता है, मृत्यु का आक्रमण होता है। तो यह जीवनकला श्वास के रूप से दौड़-दौड़कर बाहर निकल रही है और फिर कितना ही भागे वह मृगबालिका, आखिर वह सिंह के पैरों तले आ जाती है। इसी प्रकार जीवों के जीवन की कला काल में क्रम से अंत को प्राप्त हो जाती है, तो तू समझ तू अपनी ही रक्षा करने में समर्थ नहीं है, दूसरों की तो क्या रक्षा करेगा? पर की ओर दृष्टि देकर कातरता का भाव मत लावो।
खेद व आनंद पाने की स्वकला― अरे यह जीवन तो एक मायारूप है, मेरा स्वभाव नहीं है। मेरे शुद्ध आनंद के महत्व को नष्ट करने वाला यह एक कलंक है जीवन। इसका जो शाश्वत जीवन है शुद्ध ज्ञानज्योतिरूप अनुभव करना है, उस पर किसका आक्रमण है? जो चीज नष्ट हो जाती है उसको हम अपना मानें सो उसमें खेद है। नष्ट हो जाने वाली चीज को हम अपनी ही न समझें तो फिर खेद किस बात का? देखिये जिस पुरुष को किसी कल्पना से खेद आ गया है वह तो अब सारी दुनिया को खेदमयी ही निरखता है। खुद खेद खिन्न है तो उसके उपयोग में खिन्नता ही है सर्वत्र और जिसके चित्त में संवेग है, वैराग्य है, यथार्थ ज्ञान है और उस सम्यग्ज्ञान के प्रताप से एक शुद्ध संतोष हो रहा है तो सर्वत्र प्रसन्नता ही नजर आती है। देख तू बाहर में किसी की रक्षा करने का विकल्प करे या किसी से मेरी रक्षा हो, ऐसा विकल्प करे तो तू अपने आप पर निर्दयी बन रहा है क्योंकि इस विकल्पजाल से अपने आपकी शांति को भंग कर रहा है।
मूढ़ विपन्न की उपहास्य करतूत― तू इस जगत् में इन इंद्रिय विषयों में रमने का उद्यमी होकर प्रवृत्ति कर रहा है। मृत्यु तो तेरे केशों को पकड़े हुए है और तू विषयों में लग रहा है। जैसे किसी पुरुष को फाँसी का हुकुम दिया गया हो और वह फाँसी से पहिले खुब खाने पीने में लीन हो रहा है। तो लोग उसकी मूर्खता पर मन ही मन हँसते हैं। अभी तो प्राण जायेंगे और यह लड्डू, पूड़ी, कचौड़ी, हलुवा खाने में मस्त हो रहा है। ऐसे ही जगत् के प्राणी मृत्यु के द्वारा ग्रहीत हैं। पता नहीं कब यह यम अचानक आ पड़ेगा, लेकिन यह प्राणी बेसुध होकर पंचेंद्रिय के विषयों में रमण कर रहा है। यह तो अपने आप पर निर्दयता का काम है। ऐसी अशोभनीय विरुद्ध बात करते हुये हे आत्मन् ! तुम्हें लज्जा नहीं आती और भी बात देखो― तू यह देख रहा है कि यह प्राणी काल के वश है, मरने वाला है और फिर भी तू उसमें रम रहा है तो यह कैसी लज्जा की बात है। अरे तू शुद्ध भावना कर और दूसरों को भी शुद्ध भावना का अवकाश दे और इस संसार की इन विषय आपदावों से बच। अपने आपको अकेला शुद्ध ज्ञानानंदमात्र निरख। यह देह भी तो मेरा नहीं है। मैं तो केवल ज्ञानानंदस्वरूप आत्मतत्त्व हूँ। इस शरणभूत निज परमात्मतत्त्व की भावना करो और बाह्यपदार्थों से अपने को अशरण मानो।