वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1121
From जैनकोष
एतावनादिसंभूतौ रागद्वेषौ महाग्रहौ।
अनंतदु:खसंतानप्रसूते: प्रथमांकरौ।।1121।।
रागद्वेष महाग्रहों की दु:खसंतानमूलता:― अनादि से उत्पन्न हुए रागद्वेषरूपी महापिशाच बड़े गृह रूप हैं जो अनंत दु:खों के संताप की उत्पत्ति के लिए प्रथम ही प्रथम अंकुरभूत हैं। अर्थात् जितने दु:ख उत्पन्न होते हैं उन दु:खों की परंपरा रागद्वेष से चलती है। रागद्वेष मोहभाव है तब तक परंपरा चलती है। और वैसे भी अनुभव से देख लो कोई रागभाव किया जाय तो उस राग की परंपरा राग बढ़ाता जाता है। राग हे सो दु:ख है। राग ही दु:ख है क्योंकि रागपरिणाम क्षोभ को उत्पन्न कराता हुआ होता है। तो दु:ख की परंपरा रागभाव से बढ़ती है अतएव जिन्हें दु:ख अनिष्ट है उनका कर्तव्य हे कि वे रागविकार न करें। राग से चित्त चलित हो जाता है। आत्मध्यान का पात्र नहीं रहता, ऐसे रागभाव को मेटने के लिए जैन शासन में एक तत्त्वज्ञान का उपाय बताया है। ध्यानसाधना में भी प्रमुख साधन का स्थान तत्त्वज्ञान का है। अन्य लोग अनेक साधन वाले पुरुष प्राणायाम, आसन, यम, नियम, प्रत्याहार, धारणा आदिक अनेक रूप करते हैं, पर वे नियामक उपाय नहीं हैं। नियामक उपाय तो राग मेटने के लिए एक तत्त्वज्ञान का ही है।