वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1134
From जैनकोष
स पश्यति मुनि: साक्षाद्विश्वमध्यक्षमंजसा।
य: स्फोटयति मोहाख्यं पटलं ज्ञानचक्षुषा।।1134।।
मोहपटल के विनष्ट होने पर ज्ञाननेत्र से विश्वदर्शन की सहजता:― जो मुनि मोहरूपी पटल को दूर करता है वह शीघ्र ही समस्त लोक को ज्ञानचक्षु से साक्षात् प्रकट जान लेता है। जैसे सूर्य का तेज प्रकाश मेघ पटल से आच्छादित है, मेघपटल जैसे विघटित है तो सूर्य का प्रताप और प्रकाश सब विस्तृत हो जाते हैं। ऐसे ही आत्मा का यह ज्ञानरवि, ज्ञानज्योति रागादिक विकारों के पटल से आच्छादित है। जैसे ही यह मोह दूर होता है वैसे ही यह ज्ञान पूर्ण प्रकट हो जाता है। मोह दूर होता है पूर्ण रूप से।10 वें गुणस्थान के अंत में और उसके बाद फिर 12 वां गुणस्थान होता है। यह अनादिकाल से दबा हुआ इस पूर्ण ज्ञानस्वभाव से मोह का क्षय होने पर भी अंतर्मुहूर्त तक इसे अवकाश नहीं मिल पाता कि वह लोक को जान ले। राग बैरी नष्ट हो जाता है तिस पर भी अंतर्मुहूर्त तक केवल ज्ञान नहीं जगता है।12 वें गुणस्थान का अंतर्मुहूर्त व्यतीत होने पर फिर केवल ज्ञान प्रकट होता है। अब समझ लीजिए, इस ज्ञानस्वरूप पर कितना बड़ा आघात अनादिकाल से रहा कि इसके घातक रागादिक दूर हो गए तिस पर भी अंतर्मुहूर्त तक इसमें वह बल प्रकट नहीं हो पाता। लेकिन रागादिक बैरी दूर हों तो यह ज्ञान समस्त लोक और अलोक को जान ले ऐसे महत्त्व वाला होता है।