वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1135
From जैनकोष
इयं मोहमहाज्वाला जगत्त्रयविसर्पिणी।
क्षणादेव क्षयं याति प्लाव्यमाना शमांबुभि:।।1135।।
प्रशमजल से मोहज्वाला का त्वरित प्रशमन:― यह मोहरूपी महिती ज्वाला जो तीन लोक में फैली हुई है इसे समता शांति रूपी जल से बुझाया जाय, इस पर जल का प्रवाह चल जाय तो यह शीघ्र ही मोहरूपी बिजली को क्षण भर में नष्ट कर देता है। जैसे धधकती हुई आग हो और उस पर पानी का प्रवाह चल जाय तो वह तुरंत शांत हो जाता है इसी प्रकार मोह की ज्वाला जो तीन लोक में फैली है, तीन लोक के समस्त वैभव को भी ग्रहण कर ले तिस पर भी जो ज्वाला शांत नहीं हो पाती ऐसी भी कठिन मोह ज्वाला प्रशमभावरूपी जल से तत्त्वज्ञानरूपी जल से यह क्षण भर में शांत हो जाती है। यही सुख, शांति व आनंद का उपाय है। ज्ञान को छोड़कर अन्य कुछ है ही नहीं। संसारी जीव जो-जो भी विचार अपनी शांति और आनंद के लिए किया करते हैं उनमें भी जब-जब भी शांति कुछ आती है तब-तब भी काय के कारण नहीं, वैभव इकट्ठा हो गया उसके कारण नहीं, किंतु ज्ञान ही उस जाति का बनता हे कि कुछ शांति प्राप्त होती है। बड़े-बड़े करोड़पतियों के घर हैं जिनका बहुत बड़ा कारोबार है और फिर भी घर में लड़ाई हो, स्त्री में लड़ाई हो, भाई में लड़ाई हो, मनमोटाव हो। मन न मिले तो इतनी बड़ी संपदा होकर भी वे अपने आपको दु:खी ही अनुभव करते हैं, नींद न आये, बेचैन रहें, क्रोध बहुत तेज उमड़े, एक दूसरे के घात पर उतारू हो जायें, जगत में क्या-क्या अघटित बातें नहीं हो जाती। ऐसा भी सोच सकता है कि धन के पीछे बाप भी अपने बेटे को मार दे। जरा कल्पना करना कठिन है। मगर ये भी घटनाएँहो रही हैं। एक बहुत बड़ा परिवार है मेरठ में, अभी-अभी की बात है कि 15-20 हजार रुपये के धन के पीछे बाप ने बेटे को छुरे से मारा। तो ऐसी-ऐसी अघटित घटनाएँ अब भी हो जाती हैं जो कल्पना में नहीं आती, तो समझ लीजिए कि है क्याजगत में? कौन क्या है? सच तो यह है कि खुद में रागभाव पैदा होता है उससे दूसरे अपने को भले लगते हैं पर इसके लिए भला कोई नहीं है। किसी की ओर से कोई भलाई हमारे लिए हो नहीं सकती। सब अपने-अपने रागभाव की बातें हैं। इसमें बुरा मानने की जरूरत नहीं क्योंकि वस्तुस्वरूप ही ऐसा है। कोई किसी को प्रसन्न कर नहीं सकता, कोई किसी का भला बुरा करने में समर्थ ही नहीं हो सकता। रागभाव जगा और अपने आपमें अपनी ओर से उस राग का जो विषयभूत है उस पदार्थ में प्रीति उत्पन्न हो जाती है। और उस राग के समय दूसरा बड़ा भला जँचने लगा। बड़ा हितकारी है, अनुरागी है। पर कोई किसी पर न अनुराग कर सकता, न सुख दु:ख दे सकता, कुछ कर ही नहीं पाता। सब अपनी चेष्टाएँ करते हैं। जैसे कभी बहुत पहिले ऐसे सिनेमा चले थे जो बोलते न थे, आवाज बिल्कुल न थी। पर्दा पर देखो तो कहीं हाथ चल रहे, कहीं ओंठ हिल रहे, पर वचनव्यवहार न होने से वह कुछ जमता सा न था, और ऐसा ही लगता था जैसे अटपट हो हल्ला हो रहा है। वहाँ कोई किसी का कुछ कर नहीं रहा। सभी लोग अपने-अपने में अपना काम कर रहे हैं।
उदात्तव्यवहार का अनुरोध:― मनुष्यों को वचन एक ऐसे मिले हैं कि इन वचनों के द्वारा अनर्थ और बरबादी भी हो सकती है।और इन ही वचनों के द्वारा अपने आपको विकास में भी ले जा सकते हैं। और उससे ही राग बढ़ना, मोह होना, परिचय होना, पोजीशन का ख्याल होनाये सारी बातें उत्पन्न होती हैं। यह मोहज्वाला बड़ी कठिन है, तीन लोक में फैल रही है। कोई गरीब भिखारी भी हो, वह किसी से पैसा दो पैसा मांग रहा हो तो कोई कहे कि भाई पैसा दो पैसा न मांगो, इतना मांग लो जितने से संतोष हो जाय। फिर क्षोभ न मचाना।...तो बाबूजी ने दे दिए 5 रुपये। वह 5 रुपये भी दे दे तो क्या उसे संतोष हो जायगा? नहीं होगा। उसकी वांछा और बढ़ जायगी, सौ, हजार, लाख, करोड आदि रुपयों की इच्छा हो जायगी। संतोष कहाँ मिल पाता है?संतोषधन तब तक नहीं आ सकताजब तक यह परिचय न हो कि मेरा आत्मा स्वयं आनंदस्वरूप है, इतना ही है, अन्य चेतन अचेतन से इस मेरे का कोई संबंध नहीं,ऐसा जब तक अपने आपके हित स्वरूप का परिचय न होतब तक बाह्य पदार्थों से संतोष नहीं आ सकता।