वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1137
From जैनकोष
यत्संसारस्य वैचित्र्यं नानात्वं यच्छरौरिणाम्।
यदात्मीयेष्वनात्मास्था तन्मोहस्यैव वल्गितम्।।1137।।
भाववैपरौत्यों की मोहविलासता:― यहाँ जीवों की जो संसार की विचित्रता, नानारूपता और अपने आपके भावों में अनात्मपने की आस्था, आत्मा की सुध न होना, आत्मा के अभाव का ही पोषण करना― ये सब मोह के ही विलास हैं, मोह में ही ये सब चेष्टाएँहोती हैं। देखो किया तो है मूल में अपराध जरा सा और एक प्रकार का, वह क्या? परवस्तु को माना कि यह में हूँ। देखो सब जीवों का अपराध जड़ में एक प्रकार काही है ना, इन विडंबनाओं के, कारणों के-कारणों के आदि में अपराध वह एक प्रकार का है और कितना भावात्मक? केवल इतना भाव किया कि परपदार्थों को माना कि यह मैं हूँ, पर उसके फल में विचित्रता कितनी हो गयी? कितने तरह के शरीर, कितनी तरह के जन्म, कितनी तरह की अनेक विडंबनाएँलग रही हैं, विचित्रताएँहो रही हैं? ये सब विचित्रताएँमोह के ही फल हैं। कोई पेड़ है, कीड़ा है, मनुष्य है, पशु है, पक्षी है, कितनी तरह के हैं? अजायब घर में देखने जावो तो विदित होता है कि ऐसे भी जीव होते हैं क्या? हिरण जितना तो जानवर और एक मंजिल ऊँची जिसकी गर्दन हो, ऐसे विचित्र जीव बगुला जितना तो पक्षी और गर्दन हो चार गज की लंबी। कैसे-कैसे विचित्र शरीरों में ये प्राणी बस रहे हैं? ये सब विडंबनाएँ मोह के ही तो फल हैं। अपराध तो जड़ में एक भाँति का हुआ और उसमें विचित्रताएँइतनी भाँति की हो गयी। सो ऐसा मोहमल्ल निवारण करने में ही इस जीव का लाभ है। मोह में अपनी ही बरबादी का साधन बनाते हैं। बहुत-बहुत गुरुजन समझाते हैं कि तिस पर भी हमारी बुद्धि नहीं जगती। न जगे, बरबाद कौन होगा? एक मूल में सम्हाल रहे, ज्ञान सही बना रहे तो इस जीव को बहुत मौके हैं कि अपने आपको संकटों से बचा सकता है। ये रागादिक बैरी सताते हैं उस समय इसके आत्मध्यान नहीं बनता और जब तक आत्मध्यान नहीं है तब तक इसकी मुक्ति का उपाय नहीं प्राप्त हो सकता।