वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1136
From जैनकोष
यस्मिन् सत्येव संसारी यद्वियोगे शिवो भवेत्।
जीव: स एव पापात्मा मोहमल्लो निवायताम्।।1136।।
मोहमल्ल के निवारण का आदेश:― हे आत्मन् ! जिस मोहमल्ल के होने से यह जीव संसारी है और जिस मोह के वियोग होने से यह जीव मुक्त हो जाता हैउस मोह का निवारण करो। परिणमन ही है ना। मेरा परिणमन के सिवाय और क्या धन है, मेरी और क्या चीज है? मैं गुणस्वरूप हूँ और मेरा परिणमन होता है, इससे आगे तो कुछ नहीं। अब जो कुछ करने-हरने, हटने-लगने आदि की बातें हैं वे सब अपने आपमें हैं। किससे हटना, किसमें लगना, किससे निकलना यह सब अपने ही स्वरूप में सोचने की, करने की बात है। बाहर कुछ नहीं होता। तो जब अज्ञानभाव है तब अंत: यह मोह का प्रसार होता है। यह मल्ल है, विजयी है, इसनेअनंतानंत जीवों को दबा रक्खा है। बिरला ही कोई विशिष्ट तत्त्वज्ञानी जीव इस मोहमल्ल से बचकर निकल जाता है। बाकी तो सारा ही संसार इस मोह से दबा हुआ है। जिस मोह के संबंध से यह जीव संसारी कहलाता और जिस मोह के उपयोग सेयह जीव शिवस्वरूप हो जाता। इस जीव का उपकारी संयोग नहीं किंतु वियोग है। संयोग से जीव का भला नहीं किंतु वियोग से जीव का भला है। संयोग से जीव को शांति नहीं मिल सकती। किंतु वियोग से जीव को शांति मिलती है। संयोग से जीव को परमात्मपद यही मिल सकता, किंतु वियोग से परमात्मपद मिलता है। जिसको यावत् जीवसंयोग बना रहता है जिस जीव की ही विशेषता ऐसी है कि संयोग मिटेगा नहीं तो मिटे तो तुरंत, उसके एवज में अनुकूल संयोग होता, ऐसा जिस भव में संयोग बना रहता है उस भव से मुक्ति नहीं होती। वह भव है देव का भव। और संयोग जब तक है तब तक शांति नहीं है। कर्म का संयोग, परिग्रह का संयोग जब तक है इस जीव को शांति नहीं मिलती, और वियोग से इसका कल्याण ही कल्याण है। पर वियोग की बात इसे असगुनसी, असुहावनीसी लगती है और संयोग की बात सुहावनीसी और सगुनसी लगती है। किसी पुरुष का मरण काल आया हो और कोई पंडित या त्यागी उसके घर पहुँचकर उसे समाधिमरण सुनाने बैठ जाय तो घर वालों को कितना बुरा लगता है? लो पंडित जी यह विचार कर आये कि यह मरेगा। समाधिमरण जैसी चीज और जो कि हट्टे-कट्टे लोगों को भी पढ़ा जाना चाहिए, और चूँकि आवीचिमरण भी प्रतिक्षण हो रहा है। मरण में निषेक गलते रहते हैं, जिस आयु का मरण हो गया वह फिर वापस नहीं आता। तो सदैव समाधि चाहिए, लेकिन मरण काल भी हो और वहाँ भी कोई त्यागी विद्वान समाधिमरण सुनाने बैठ जाय तो प्रथम तो उस विद्वान की यों हिम्मत ही न होगी कि घर के लोग बुरा मानेंगे। कुछ संकेत पाये तो सुनाये। तो जो वियोग हमारे भले के लिए हैउस वियोग की बात भी सुनें तो असगुन समझते हैं। जहाँऔर संयोग की बात हो उसे सगुन लगती है तो जिस मोहमल्ल के संयोग होने पर यह प्राणी संसारी बनता हैऔर जिसका वियोग होने पर यह जीव मुक्तस्वरूप हो जाता है उस मोहमल्ल का निवारण कीजिए।