वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1142
From जैनकोष
विरज्य कामभोगेषु विमुच्य वपुषि स्पृहाम्।
समत्वं भज सर्वज्ञज्ञानलक्ष्मीकुलास्पदम्।।1142।।
हे आत्मन् ! तू काम और भोग आदिक में विरक्त हो, शरीर में आसक्तता छोड़कर समता का सेवन कर। जब तक काम और भोगों में राग है तब तक समता नहीं होती। काम का अर्थ है स्पर्शन और रसना इंद्रिय का विषय और भोग का अर्थ है घ्राणइंद्रिय, चक्षुइंद्रिय और कर्णइंद्रिय का विषय। जब तक पंचेंद्रिय के विषयों से विरक्ति नहीं उत्पन्न होती तब तक यह जीव समता का पात्र नहीं बनता। सो काम भोगों में विराग करके शरीर की अशक्तता को छोड़ें और समता का सेवन करें। यह समता सर्वज्ञ के ज्ञान लक्ष्मी के कुल का स्थान है अर्थात् समतापरिणाम हो तो उसके केवलज्ञान लक्ष्मी प्राप्त होती है। जीवस्वरूप स्वभाव से शांत है, इसको कहीं भी आकुलता नहीं है, लेकिन जब स्वभाव को ही भूल जाय तो विभाव में, परभाव में, अन्य पदार्थों में इसकी आसक्ति बनेगी। और जहाँ परभावों में आसक्ति हुई कि फिर वहाँ ज्ञान का विकास रुक जाता है। ज्ञान का शुद्ध स्वाभाविक विकास हो तो वहाँ आकुलता ठहर नहीं सकती। आकुलता भी और क्या चीज है? एक ज्ञान की किस्म है। ज्ञान किस रूप परिणमता है उस ही आधार पर सुख दु:ख आनंद सबकी सृष्टि है। तब ज्ञान ही सम्यक्त्व है, ज्ञान ही सम्यग्ज्ञान है, ज्ञान ही सम्यक् चारित्र है अर्थात् जब जीवादिक के श्रद्धान के स्वभाव से यह ज्ञान अपनी परिणति बनाता है तो वह सम्यक्त्व है और जब पदार्थों के ज्ञानरूप से वृत्ति बनाता है तो वह सम्यग्ज्ञान है अर्थात् जब रागादिक का त्याग करते हुए ज्ञान अपनी वृत्ति बनाता है तो वह सम्यक्चारित्र है। जब सम्यक्त्व, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र ये सब ज्ञान ही हुए तो मिथ्यादर्शन, मिथ्याचारित्र ये भी तो ज्ञान के ही परिणमन हुए। जिस अभेददृष्टि से हम सब कुछ ज्ञान को मान सकते हैं तो उस ही अभेद दृष्टि से हम सब कुछ आकुलतावों को ज्ञान के ही विपरिणमन मान सकते हैं तो सुख क्या, दु:ख क्या, आनंद क्या? ये सब ज्ञान के परिणमन हैं। तो अपने आपको केवल ज्ञाता द्रष्टा रखने का यत्न करें। ये रागद्वेष स्वयं दूर होंगे और अपनी जो कैवल्य ज्ञान, कैवल्य लक्ष्मी है उसको तू प्राप्त कर लेगा।