वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1143
From जैनकोष
छित्वा प्रशमशस्त्रेण भवव्यसनवागुराम्।
मुक्ते: स्वयंवरागारं वीरं व्रज शनै: शनै:।।1143।।
हे आत्मन् ! हे वीर ! तू शांतस्वभावी शस्त्र से सांसारिक कष्टरूपी शत्रु को छेदन कर और मुक्तिरूपी लक्ष्मी का वरण कर। शांत होने से फिर मार्ग का रोकने वाला कोई नहीं है। मार्ग क्या? जिस वृत्ति से आत्मा शांति को प्राप्त हो, आनंद को प्राप्त हो वही मार्ग है। उस मार्ग में गमन उसका निर्वाध होगा जो प्रशम का रुचिया होगा। समस्त कल्पनाएँ, समस्त बाधायें शमन होकर एक आत्मीय सत्य प्रसन्नता प्रकट हो तो वहाँ इसके सांसारिक कष्ट दूर हों और निराकुलता प्राप्त हो। फिर इसको शिव के मार्ग से रोकने वाला कोई नहीं है। कभी भी कुछ भी कोई संकट आये उन सर्व संकटों को नष्ट करने का उपाय केवल अपने आपके एकत्व स्वभाव में दृष्टि बना लेना है। सारे संकट एक साथ समाप्त हो जायेंगे। और उसी में फिर प्रशम, सम्वेग, अनुकंपा और आस्तिक्य प्रकट हो जायेंगे। किसी ने पहिले अपराध किया हो तो ऐसे अपराधी पुरुष पर क्रोध न करना उसे क्षमा कर देना सो प्रशमभाव है। तत्त्वज्ञानी के ऐसा विचार रहता है कि कोई पुरुष मेरा अपराध नहीं करता। जो कोई कर सकता है वह खुद अपना अपराध कर सकता है। तब मेरा अपराध करने वाला जगत में है कोई नहीं। सबके अपनी-अपनी कषायें हैं, उन कषायों के अनुसार सबकी
अपनी-अपनी चेष्टायें हैं, मेरा अपराध करने वाला लोक में कोई नहीं है अतएव किस पर क्रोध करना? ऐसा ज्ञान जगने से इस तत्त्वज्ञानी पुरुष के प्रशम भाव उत्पन्न होता है। सम्वेग भाव दो भागों में विरक्त है एक तो संसार से वैराग्य और दूसरे धर्म में अनुराग। ये दोनों बातें परस्पर अविनाभावी हैं। जिसे संसार में वैराग्य है उसे धर्म में अनुराग है, जिसको धर्म में अनुराग है उसको संसार में वैराग्य है। इसी कारण सम्वेग में दो श्रेणियाँ हैं। तत्त्वज्ञानी पुरुष के संसार से वैराग्य सहज बना करता है, और संसार में जब किसी भी पदार्थ में इसका उपयोग न टिका तो उपयोग फिर अपने आप रूप रह गया। अपने आपसे फिर अनुराग जगे, प्रीति जगे, यही हो गया धर्मानुराग। तो सम्वेग की दो श्रेणियाँ हैं―संसार से वैराग्य और धर्म में अनुराग। इस सम्वेग भाव को करके अपने आपको यह तत्त्वज्ञानी पुरुष कैवल्य स्थिति के निकट ले जाता है। तीसरा गुण प्रकट होता है ज्ञानी के अनुकंपा। अनुकंपा की भी दो श्रेणियाँ हैं― परभावों पर अनुकंपा करना और स्वयं पर अनुकंपा होना। स्वयं पर अनुकंपा तो यह है कि यह तत्त्वज्ञानी अपने आपको दु:खी और उद्विघ्न देख रहा है। इस संसार में यह प्राणी रागद्वेष के वशीभूत होकर अपने आपके प्रभु पर अन्याय करता चला जा रहा है, दु:खी हो रहा है।
दुखियों पर दया तो ज्ञानियों को आती ही है। यह स्वयं दु:खी हे और अपने आप पर दया नहीं कर रहा है। बड़ी विपदा है यह। इसकी यह विपदा एक सम्यग्ज्ञान से ही मिट सकती है। देखो यह ज्ञान सम्यग्ज्ञान का आदर करके अपने आप पर अनुकंपा जगा रहा है। यह तो हुई अपने आप पर अनुकंपा। और जिसको स्व पर अनुकंपा होती है उसको पर में भी अनुकंपा होती है। संसार के अनेक प्राणी दु:खी हैं। बाह्य पदार्थों में अपने सम्मान अपमान की बात निरखकर ये संसार के प्राणी दु:खी रहते हैं। ओह ! कितना दु:खी हैं ये संसार के प्राणी? तत्त्वज्ञानी पुरुष को धन के अभाव का दु:ख नहीं। कोई पुरुष धन वैभव के कारण दु:खी है ऐसा नहीं निरख रहा है तत्त्वज्ञानी पुरुष, किंतु वह इस दृष्टि से दु:खी देख रहा है कि इन संसार के प्राणियों को पदार्थों के स्वरूप का यथार्थ ज्ञान नहीं है।यथार्थ ज्ञान न होने के कारण ये संसार के प्राणी अनेक प्रकार के विकल्प बनाया करते हैं और दु:खी होते रहते हैं। यह खुद सुख से परिपूर्ण भरा है, आनंदनिधि से परिपूर्ण है किंतु उसका परिचय न होने के कारण यह जीव दु:खी हो रहा है। यों तत्त्वज्ञानी के अपने आप पर अनुकंपा जगती है। चौथा गुण इसके प्रकट होता है आस्तिक्य। जो जैसा हे उसे वैसा मान ले यह आस्तिक्य भाव है। आस्तिक्य भाव के कारण भी बड़ी प्रसन्नता और निराकुलता रहती है। इस तत्त्वज्ञानी को। मैं हूँ अमूर्त। इस अमूर्त अंतस्तत्त्व में छेदन, भेदन, संघट्टन आदि किसी की संभावना नहीं है। यह तो केवल अपने भावों से दु:खी है। जैसा है वैसा समझ जाने के कारण इसको कहीं भी अप्रसन्नता नहीं रहती। यों तत्त्वज्ञानी के प्रशम, सम्वेग, अनुकंपा आस्तिक्य भाव रहते हैं, इस कारण वह सदैव सुखी रहा करता है। तो हे आत्मन् ! इस प्रशम भाव का आदर करके सांसारिक कष्टों की फाँसी को छेद दे और मोक्षस्थान के प्रति गमन कर।