वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 115
From जैनकोष
अस्मिंनंतकभोगिवक्त्रविवरे संहारदंष्ट्रांकिते
संसुप्तं भुवनत्रयं स्मरगरव्यापारमुग्धीकृतम्।।
प्रत्येकं गिलतोऽस्य निर्दयधिय: केनाप्युपायेन वै।
नास्मान्नि:सरणं तवार्य कथमप्यत्यक्षबोधं बिना।।115।।
जीवों की वर्तमान विपन्नता― हे आर्य सत्पुरुष ! देख―ये तीनों लोकों के प्राणी कालरूपी विष की गहलता से मूर्छित होकर गाढ़ मोह निद्रा में शयन कर रहे हैं, और शयन भी कैसा कर रहे हैं? संहारस्वरूप सर्प को दाढ़ों से अंकित कालरूपी सर्प के मुखरूप बिल में गाढ़ निद्रा में सो रहे हैं। देख ये दोनों ही बातें भयावह हैं। एक तो इच्छारूपी विष से मूर्छित पड़े हुए हैं और दूसरे पड़े कहाँ है इस काल की दाढ़ में तो इस जीव का क्या शरण होगा? जैसे कोर्इ हिरण का बच्चा जंगल में रहता है। किसी दिन उसके पीछे सौ शिकारी हाथ में धनुषबाण लिये हुए उसका पीछा कर रहे हैं, उसके मारने का उद्यम कर रहे हैं और उस हिरन के आगे है कोई विशाल नदी अथवा समुद्र और अगल-बगल हैं ऐसे पर्वत जो कि अग्नि की ज्वाला से जाज्वल्यमान् हैं। अब वह हिरन का बच्चा आगे जाता है तो पानी में डूब जायेगा, अगल-बगल जाता है तो अग्नि में भस्म हो जायेगा, पीछे से बहुत से शिकारी उसको मारने के लिये पीछा किये हुये हैं। अब बेचारा हिरण का बच्चा क्या करे? वह तो विलाप ही करता है। कहाँ जाऊँ? क्या करूँ? ऐसे ही ये संसार के प्राणी कहाँ जायें, जीवन का अंत होता है। जीवन के विचित्र समागम होते हैं।
रक्षा का एकमात्र उपाय― यह जीव स्वयं-स्वयं के आत्मस्वरूप में न ठहर कर कहीं भी बाह्य में दृष्टि बनाये सर्वत्र अरक्षित है। ये काम की प्रगाढ़ निद्रा में सो रहे हैं। उन सबको प्रत्येक को यह काल निगलता जाता है। इस संकट से बचने का अन्य कोई उपाय नहीं है, केवल एक ही यह उपाय है कि प्रत्यक्ष ज्ञान की प्राप्ति करे। अमर, शाश्वत ज्ञानानंदघन निज चैतन्यस्वभाव की दृष्टि करे तो इस उपाय से काल के पंजे से निकलने की बात बन सके, अन्य कोई उपाय नहीं है। एक अपने ज्ञानस्वरूप का शरण लेने से ही इस काल से रक्षा हो सकती है।
व्यवहार की पकड़ में रक्षा का अलाभ― देखिये जगत् के अन्य जितने भी द्रव्य हैं निश्चय से तो वे अपनी-अपनी शक्ति के भोगने वाले हैं, अर्थात् कोई जीव किसी दूसरे का न कर्ता है, न हर्ता है। जो जैसा है तैसा ही है, किंतु व्यवहारदृष्टि से निमित्त-नैमित्तिक भाव परखे जाया करते हैं। उन निमित्त-नैमित्तिक भावों को देखकर यह जीव किसी भी परपदार्थ के प्रति यह शरण है ऐसी कल्पनाएँ कर लेता है और दिखता क्या है इसे? केवल यह कर्म नोकर्म पिंड शरीर जो नि:सार है। जैसा आज यह उठा है, बढ़ा है उसका भी तो कोई विश्वास नहीं है। तो व्यवहारदृष्टि चूँकि इन विषयसाधनों के साथ इसका निमित्त-नैमित्तिक संबंध है सो यह अन्य किसी भी पदार्थ में अपनी शरण की कल्पना कर लेता है। छोटा भी बालक हो, वह भी शरण के पिछान का यत्न करता है।
अपना वास्तविक शरण― निश्चय दृष्टि से देखा जाय तो अपने आत्मा का यह आत्मा ही शरण है और व्यवहारदृष्टि से विचार कीजिये तो परंपरा सुख के कारणभूत वीतराग भाव को प्राप्त हुये ये पंचपरमेष्ठी ही शरण हैं। जब निश्चयदृष्टि संभालते हैं तो खुद को खुद ही शरण मिलता है। तो स्वयं यह सशरण है लेकिन स्वयं की सुध न होने से यह अन्य-अन्य जगह जाता है। हे आत्मन् ! देख तेरा वीतराग भाव ही वास्तविक शरण है। तो वीतराग पुरुष हैं उनके गुणों का स्मरण शरण है। यदि वीतरागता की रुचि जगी है तो यह आत्मा ही एक अपने को शरण है। व्यवहार से निरखें तो जो वीतराग हुए हैं वे शरण हैं, अपने अर्थात् पंचपरमेष्ठियों की भक्ति वंदना करने से, उनके गुणस्मरण करने से अपने आपके स्वरूप की सुध होती है और स्वरूप के बोध की दृढ़ता होती है। यों व्यवहार में तो हम आपको पंच परमगुरु शरण है और निश्चय दृष्टि से अपना यह शुद्ध आत्मा ही शरण है, अन्य कुछ शरण मत मानो अन्यथा धोखा ही धोखा खाना होगा। अपनी एक सीमित आजीविका का ढंग बनाकर करने योग्य काम तो अपने आपमें जो शरणभूत ब्रह्मस्वरूप है उसकी आराधना करना है, सो व्यवहार में पंचपरमगुरु की आराधना करके और निश्चय से सर्वसंकटों से रहित ज्ञानमात्र निज तत्त्व की आराधना करके वास्तविक शरण को गहे, काल्पनिक शरण के पीछे न पड़े।