वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 114
From जैनकोष
पाताले ब्रह्मलोके सुरपतिभवने सागरांते वनांते।
दिक्चक्रे शैलश्रृंगे दहनवनहिमध्वांतवज्रासिदुर्गे।
भ्रूगर्भे सन्निविष्टं समदकरिघटा संकटे वा वलीयान्कालोऽयं क्रूरकर्मा कवलयति बलाज्जीवितं देहभाजाम्।।114।।
पाताल और ब्रह्मलोक में भी जीवन की अरक्षितता― यह काल ऐसा बली है कि यह किसी भी संसारी जीव को बलात्कारपूर्वक ग्रस लेता है, यह जीव चाहे पाताल में बैठा हो जो कि हम आप सबके लिये दुर्गम्य है, कहाँ से पाताल जाये, इतनी मोटी पृथ्वी है जिसके तलभाग में पाताल लोक बस रहा है वहाँ जीवों का गमन बहुत कठिन है। ऐसी जगह भी कोई जीव बैठा हो, वहाँ का उत्पन्न हुआ जीव भी इस काल के वशीभूत होकर अपना जीवन खो देता है। यह चाहे ब्रह्मलोक में बैठा हो, उत्पन्न हो, अवस्थित हो वहाँ भी यह जीव सुरक्षित नहीं रहता। ब्रह्मलोक से मतलब ऊर्ध्वलोक के मध्य भाग में ब्रह्मलोक माना गया है, ऊर्ध्वलोक के बीच में भागे, वहाँ भी कोई जीव अवस्थित हो उसका भी जीवन सुरक्षित नहीं है। जब आयु का अंत होता है तो वहाँ भी इस जीव को उस देह से जाना पड़ता है। कहाँ यह जीव जाये कि यह मृत्यु से बच सके? कोई ऐसा स्थान नहीं है।
इंद्रभवन में भी जीवन की अरक्षितता― यह जीव इंद्र के भवन में भी बैठा हो, ऊर्ध्वलोक में कल्पवासियों के 24 इंद्र प्रतींद्र होते हैं और ऊपर तो सभी ही इंद्र हुआ करते हैं। उन इंद्रों के भवन में भी कोई अवस्थित हो, वह भी सदाकाल जीवित नहीं रह सकता। स्वयं इंद्र भी सदाकाल नहीं रह सकता। भले ही बहुत लंबी आयु है और उस लंबी आयु के कारण उन्हें अमर कहा करते हैं किंतु अंत उनका भी है। यह जीव बहुत दूर समुद्र के तट पर भी चला जाय, जैसे कहते हैं ना चारों ओर के धाम बहुत दूर समुद्र के तट भी पहुँच जाय इस काल से बचने के लिये कि यह काल वहाँ न आ सकेगा, बहुत दूर चला जाय, लेकिन वहाँ भी जीवन सुरक्षित नहीं है। आयु का अंत होने पर वहाँ भी मरण करना पडता है। कहीं दुर्गम वन के पार भी पहुँच जाय शायद इस गहन वन की उलझन के कारण काल वहाँ न पहुँच सकेगा, यों मानो वन के पार भी कोई जीव पहुँच जाय वहाँ भी इस जीव का जीवन सुरक्षित नहीं है। वहाँ भी मरना ही पड़ता है।
मरण की दहल― मरण का भय इन संसारी जीवों को लगा हुआ ही है। कितनी भी उमर हो जाये पर मरण की संभावना समझ में आये तो उस वृद्ध का भी दिल दहल जाता है। हाय ! अब मुझे यहाँ से मरना पड़ रहा है। बहुत से वृद्ध पुरुष अथवा बुढ़िया अपने शारीरिक दु:ख के कारण ऐसी प्रार्थना किया करते हैं कि हे भगवान् ! मुझे उठा लो। अर्थात् मेरा मरण हो जाय, ऐसे अहर्निश प्रार्थना करने वाले बूढ़े और बुढ़िया मरण का अवसर सामने आने पर दहल जाते हैं। मान लो कोर्इ साँप निकल आया निकट तो क्या वे घबराते नहीं हैं? क्या घर के बच्चों को पुकारते नहीं हैं? ऐ बच्चों― देखो साँप यहाँ निकला है, जल्दी आकर मुझे बचाओ। यदि बच्चे यह कह दें कि अरी बुढ़िया दादी तू तो भगवान से प्रार्थना किया करती थी कि मुझे उठा लो, तो तुम्हारी प्रार्थना को ही सुनकर भगवान् ने तुम्हें इसे उठाने के लिये भेजा है, तू क्यों इतना डरती है? यदि कोर्इ मजाकिया यह कह दे तो उसका उत्तर क्या? सब मरण से भय किया करते हैं।
मरण से बचने के उपायों की व्यर्थता― इस मरण से बचने के लिये लोग सारे उपाय बनाया करते हैं, अच्छा मजबूत मकान बनवाते, अपने सब तरह के भोजन पान आदिक आराम के अन्य साधन बना लेते, सब कुछ करते हैं लेकिन कोई यहाँ सदा जीवित रह सका क्या? बड़े-बड़े महापुरुष भी नहीं रहे तो अपनी बात सोचो। यदि यह दृश्य सामने नाचने लगे कि मेरा मरण तो किसी भी क्षण हो सकता है, तो इसे फिर आकुलता न रहेगी। लोग तो मरण की संभावना में आकुलता मचाते हैं, लेकिन विवेकी पुरुष मरण की संभावना को सामने रखकर निराकुल रहने का यत्न करते हैं। लोग बड़ी चिंताएँ कर रहे हैं अगले वर्ष की घटनावों के लिये। यदि यह अभी ही गुजर गया तो फिर कहाँ इसका संबंध रहा इस लोक के वैभव से? यह जीव इस मरण से बचने के लिये बहुत-बहुत उपाय करता है, लेकिन सब उपाय इसके निष्फल चले जाते हैं।
दिगंत और भीड़ में भी जीवन की असुरक्षितता― यह जीव मरण से बचने के लिये दिशाओं के अंत में भी पहुँच जाय जिन्हें पूर्व, दक्षिण, पश्चिम और उत्तर कहते हैं, बहुत अधिक दूर पहुँच जाय तो वहाँ भी इसका जीवन सदा नहीं रहता । मरना पड़ता है। यह तो बहुत छोटी दूर की बात कह रहे हैं। इस लोक के बिल्कुल अंत में जहाँ सिद्ध जीव बसा करते हैं वहाँ जो निगोद जीव भरे हुए हैं वे अपनी ही मौत से एक श्वास में 18 बार जन्म और मरण किया करते हैं। कहाँ जावोगे? इस काल का तो सर्वत्र प्रसार है। यह जीव बहुत ऊँचे पर्वत के शिखर पर भी चढ़कर वहाँ ठहर जाय, लो अब तो मैं बहुत -सी भीड़ से हटकर ऊपर आ गया हूँ, यह काल तो भीड़ में तलाश करता फिरेगा कि इसका अंत कर दें। मैं तो बहुत ही निराले विलक्षण ऊँचे पर्वत पर पहुँच गया हूँ। अब यह मैं सुरक्षित रह जाऊँगा, पर कहाँ सुरक्षित रह सकता है? यह जीव कहीं भी चला जाय सुरक्षित नहीं रहता।
अग्नि और जल में भी जीवन की असुरक्षितता― ऐसे भी जीव हैं जो अग्नि में जीवित रहते हैं। अग्नि खुद जीव है, इससे बढ़कर और सुरक्षित स्थान क्या होगा? काल आयेगा तो वह ही पहिले अग्नि में भस्म हो जायेगा। अग्नि के मध्य भी कोई जीव हो तो भी काल द्वारा ग्रस जायेगा। कोई गहरे जल में छिप जाय, जल में बहुत सी सुरक्षा रहती है। जब कोई मधु मक्खी इस मनुष्य को सताने लगती है उस समय इस मनुष्य के पास अन्य कुछ उपाय नहीं है। कहाँ जायेगा? पेड़ पर चढ जायेगा तो मधुमक्खी वहाँ भी सतायेगी, किसी जगह गुफा में चला जाय तो मधुमक्खी वहाँ तक भी पहुँचेगी। एक जल का स्थान ऐसा है कि जल में डुबकी लगा ले तो मधुमक्खी जल के भीतर प्रवेश नहीं कर सकती। तो वहाँ देखो यह पुरुष सुरक्षित रह गया ना? यों कोई जल के अंदर भी ठहर जाय तो भी सुरक्षित नहीं है। उसका भी मरण हुआ करता है।
हिमालयादि दुर्गम स्थानों में जीवन की अरक्षितता― कोई जीव एकदम हिमालय में पहुँच जाय। हिमालय इस व्यवहार की दुनिया से एक निराला स्थान है। वह देश के एक कोने पर है, वहाँ भी पहुँच जाय कोई अथवा वहाँ का उत्पन्न हुआ हो कोई तो वह जीव वहाँ भी सुरक्षित नहीं है। वह भी काल के वशीभूत होता है, जन्म-मरण करता है। जीवन में सार क्या है? जी रहे हैं कितने दिनों को और जीकर भी सारभूत बात क्या लूट ली है? इस जीवन में भी क्लेश ही क्लेश है और जब जीवन का अंत होता है तब भी क्लेश है? यहाँ शरण कुछ नहीं है। किसी भी बाह्यस्थान को शरण मानकर यह जीव ऐसे-ऐसे दुर्गम स्थान पर भी पहुँच जाये तो भी आयुकर्म तो सब जीवों का उनके साथ ही है। वह जहाँ है तहाँ ही आयुगमन है, अंत होगा और उन्हें वहाँ मरण करना पड़ेगा।
अंधकार में भी जीवन की अरक्षितता― यह जीव गहन अंधकार में पहुँच जाय, लो अब अँधेरे में यह काल कहाँ ढूँढ लेगा? जब कृष्णपक्ष की अमावस्या जैसी गहन रात होती है, उसमें अपने ही हाथ पैर अपने को नहीं सूझते, और कभी-कभी तो अपने अंगों को छूने में भी, परखने में भी दूर लग जाती है। ऐसे गहन अंधकार में हम पहुँच जायेंगे तो वहाँ सुरक्षित रह जायेंगे। किसी की नजर भी नहीं जा सकती। भाई ऐसे गहन अंधकार में भी पहुँच जाय तो भी जीवन सुरक्षित नहीं है। जो जीवित हुआ है वह मरण भी नियम से पायेगा।
वज्रमयी स्थानों में भी जीवन की अरक्षितता― भैया ! खोजिए कोई संसार में बहुत मजबूत स्थान जहाँ काल का कुछ भी प्रवेश न हो, ढूँढो कोई स्थान। अच्छा लो―चलो किसी वज्रमयी स्थान में चलें, जिस वज्र को कोई भेद न सके ऐसे वज्रमयी स्थान में यह जीव पहुँच जाय तो वहाँ भी यह सुरक्षित नहीं है। कारण यह है कि कोई मारने वाला अलग से नहीं है जिसकी आँखों से बचकर हम अपने जीवन को सुरक्षित बना लें। इस जीव के साथ अष्टकर्म लगे हुए हैं, उनमें एक आयुकर्म है। उस आयुकर्म के क्षय होने पर जो कि होता ही है, निषेक उदय में आ रहे हैं तो कभी तो समाप्त होंगे ही। बस उस आयुकर्म के गलने का नाम ही मरण है और इस मरण होने के बाद भी छुटकारा मिल जाय तो वह भी भला था। लेकिन मरण के बाद इस जीव को जन्म लेना पडता है, यही कष्ट की बात है अथवा जन्म लेने का नाम ही मरण है। यों इस जीव के साथ ही आयुकर्म लगा है और वह सर्वत्र है। जहाँ जीव जाय वह ही है। सो उस आयुकर्म के अंत में इसको मरना ही पड़ता है।
पहरे व गढ़कोटों में भी जीवन की अरक्षितता― अब और कोर्इ सुरक्षित स्थान देख लो तलवारमयी पहरेदारों के पहरा दिये हुए कमरे में कोई चला जाय तो शायद वहाँ जीवन पूर्ण रक्षित रहेगा, क्योंकि चारों ओर नंगी तलवार लिये पहरेदार लगे हुए हैं? अरे वहाँ भी इस जीव की रक्षा नहीं हो सकती। जब आयु का अंत होता है तो उसे भी मरना पड़ता है अन्यथा पूर्वकाल में कितने बलिष्ठ राजा हो गए, कोई बचा भी है आज क्या? कोई नहीं बचा। कहाँ जाय यह जीव की मरण से बच जाय? शायद बड़े मजबूत गढ़कोट जैसी भूमि पर यह जीव पहुँच जाय तो वहाँ इसकी रक्षा हो सकेगी? खूब गढ़ बना है, उस मजबूत गढ़ के मध्य में बैठा है और वह भी एक बाहरी गढ़, उसके भीतर मझोला गढ़ और उसके भीतर खास अंतरंग गढ़ उसमें बैठा हुआ कोई जीव यह सोचता हो कि मेरा यहाँ कैसे मरण होगा? हमने तो इतना डबल तिबल प्रबंध कर डाला है, लेकिन इस प्रबंध से होता क्या है? जब आयु का अंत समय होता है तो इस जीव को संसार से विदा होना ही पड़ता है। कहाँ जाय यह जीव? बड़े मदोन्मत्त हस्तियों के समूह में रहे, उन हस्तियों का प्यारा बनकर भी रहे तो वहाँ भी इसका जीवन सुरक्षित नहीं है।
स्वदृष्टि की ही शरण्यता― किसी भी जगह यह काल, यह आयुक्षय बलपूर्वक जीव के जीवन को ग्रसीभूत कर लेता है। इस काल के आगे किसी का वश नहीं चलता। इस अशरण भावना में इस प्रकरण को सुनकर हमें यह निश्चय करना चाहिये कि बाहर में मुझको कुछ भी शरण नहीं है। केवल यह मैं ही अपने को ठीक सही रूप में दिख जाऊँ तो यही शरण है।