वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1161
From जैनकोष
शाम्यंते योगिभि: क्रूरा जंतवो नेति शंकयते।
दावदीप्तमिवारण्यं यथा वृष्टैबर्लाहकै:।।1161।।
योगियों के निकट क्रूर जंतु आ जायें वे सब शांत हो जाते हैं, इसमें शंका की कोई बात नहीं है। जैसे दावानल से दीप्त हुआ कोई वन है तो वह जैसे वर्षा करने वाले मेघों से एकदम शांत हो जाता है, उसमें कोई आश्चर्य करता है क्या? कुछ भी आश्चर्य नहीं। तेज अग्नि लग रही है, जंगल में और उसी समय बड़ी तेज वर्षा हो जाय तो जंगल की आग बुझ जाती है। तो जैसे उन वर्षा करने वाले मेघों में ऐसी सामर्थ्य है कि बहुत बड़े विशाल वन की भी अग्नि शांत हो जाती है इसी प्रकार इन योगीजनों का ऐसा प्रताप है कि कितने ही क्रूर जंतु उनके निकट में आयें तो उनका क्रोध शांत हो जाता है। दूसरे जीव भी समझदार हैं और योगियों की शांत मुद्रा निरखकर वे भी अपने आपमें एक नया प्रभाव उत्पन्न कर लेते हैं और वे शांत हो जाते हैं। समताभाव रखने से धैर्य और गंभीरता का परिणाम रखने से जीव को कष्ट का मुकाबला नहीं करना पड़ता और रागद्वेष में जो बढ़ें, हठ करें, किसी की न मानें, जो विषयासक्त मन ने आर्डर दिया उस हीमें रत हो जाय ऐसी जिनकी कमजोरी हैं, रागद्वेषभाव लगा हुआ है। वे पुरुष स्वयं क्षुब्ध रहते हैं उनके निकट बसने वाला कोई कैसे शांत हो सकेगा। जैसे करीब-करीब यह बात है कि दु:खी और मोही प्राणियों की कहानी सुनकर अधीर पुरुषों की अधीरता भरी वेदनाएँ सुन सुनकर सुनने वाले चित्त में भी वेदना जग जाती है और सुखी शांत ज्ञानी विरक्त पुरुषों की वार्ता सुनकर सुनने वाले के चित्त में भी ज्ञान और वैराग्य का भाव जग जाता है। जैसे मनुष्यों के साथबैठे, रहे, बातें सुनें, वैसा प्रभाव होने लगता है। यहाँ तो अद्भुत समता के धनी योगी विराजे हैं तो उनके निकट जो भी प्राणी आयें वे कषायों को छोड़कर शांत हो जाते हैं।