वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1160
From जैनकोष
भजंति जंतवो मैत्रीमन्योऽन्यं त्यक्तमत्सरा:।
समत्वालंबिनां प्राप्य पादपद्माचितां क्षतिम्।।1160।।
जो समतापरिणाम का आलंबन लेते हैं उनके चरणकमलों से पूजित जो पृथ्वी है वहाँ जो-जो भी आ जाते हैं वे सब जंतु आपस में द्वेष त्याग देते हैं और परस्पर मैत्री भाव रखने लगते हैं। आखिर वे भी संज्ञी पंचेंद्रिय जीव हैं। जो क्रूर जंतु उनके निकट बैठते हैं वे बैर छोड़कर और परस्पर में मित्रता की बात रखते हैं, वे भी संज्ञी पंचेंद्रिय जीव हैं। उनके भी मन है, उन पर प्रभाव पड़ता है उस समतापरिणाम के वातावरण का। जैसे यहाँ भी जैसे मनुष्य के पास बैठो वैसा प्रभाव बनता है। तो यहाँ एक साधारण रूप से एक थोड़े प्रभाव की बात हे और वहाँ उन विशिष्ट योगीश्वरों के उनका समता का प्रभाव अपूर्व होता है। जिनके रागद्वेष नहीं हैं किसी भी जीव का जो बुरा नहीं चाहते हैं उनके देह पर कितने भी क्रूर जीव उपसर्ग करें, उनकी चमड़ी छीलें, सिर पर अँगीठी जलायें, कैसा ही उपद्रव करें, इतने पर भी चूँकि उन्होंने ज्ञानस्वभाव का आश्रय किया है और उनका अहं रूप से अनुभवना है, अतएव ऐसे उपद्रव कार्यों पर भी उनके बैरभाव नहीं जगता। ऐसी समता जिनके जग गयी है उन पुरुषों के निकट भूमि पर जो भी क्रूर से क्रूर जंतु आ जायें तो भी मात्सर्यभाव छोड देते हैं और परस्पर में मित्रता का आचरण करने लगते हैं।यह सब समता का प्रताप है। समता का प्रताप खुद में तो एक अपूर्व आनंद का अनुभव जगे ऐसा होता है और बाहर में लोग भी बैर छोड दें, मात्सर्य त्यागकर अपने आपमें प्रमुदित रहें ऐसाप्रताप होता है। वे योगीश्वर वर्तमान में अपनी योगसाधना में रहते हैं अत: समताभाव है किंतु उन्होंने पूर्व समय में जो भी कर्म बाँधा था या किसी भी प्रकार दूसरों को उनसे तकलीफ पहुँची थी, जबकि वे योगी न थे और उस समय बांधे हुए कर्म भी उदय आने पर उन पर उपद्रव भी हो जाता था। किसी-किसी के तो एकतरफा बैर होता है। न भी किसी भव में किसी का अनिष्ट चाहा लेकिन दूसरे जीवों का भ्रम बढ़ता जाय और उनसे वे बैर बाँध लें ऐसी स्थिति भी हो जाती है, लेकिन जो योगीश्वर हैं, जिन्होंने आत्मतत्त्व का अनुभव किया है उनके बैरियों के प्रति भी बैर नहीं जगता। यथार्थ निर्णय है। अब यह भाव है कि मेरे को दु:खी करने वाला कोई दूसरा जीव हो ही नहीं सकता। कदाचित् उपद्रव भी हो रहा हो तो उसमें अपना ही उपार्जन किया हो, कर्मों का यह सब फल है। आत्मतत्त्व का अनुभव करने वाले योगीश्वर दूसरों पर ईर्ष्याभाव, बैरभाव, विरोधभाव नहीं लाते। ऐसे योगियों के निकट जो भी जंतु आयें वे सब क्रूरता को त्याग देते हैं और परस्पर में मित्रता का बरताव करते हैं।