वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1166
From जैनकोष
एक: पूजा रचयति नर: पारिजातप्रसूनै:,
क्रुद्ध: कंठे क्षिपति भुजंग हंतुकामस्ततोऽंय:।
तुल्या वृत्तिर्भवति च तयोर्यस्य नित्यं स योगी,
साम्यारामं विशति परमज्ञानदत्तावकाशम्।।1166।।
जिन मुनियों की ऐसी वृत्ति है कि चाहे कोई उनकी पूजा रच रहा हो चाहे कोई क्रुद्ध होकर कंठ में सर्प डाल रहा हो लेकिन उन योगीश्वरों के दोनों के प्रति समता का व्यवहार रहता है। यह सब ज्ञान का प्रताप है। कषाय करने से क्लेश ही उत्पन्न होता है। कषाय का अर्थ ही यह हे कि जो आत्मा को कसे अर्थात् दु:ख दे।जिसके मोह अज्ञान नहीं रहा, इस देह को भी अपना स्वरूप नहीं समझता, जिसका यह दृढ़ निर्णय है कि इस देह से भी न्यारा चैतन्यस्वरूप में आत्मा हूँ, इस मुझ आत्मा को न कोई छेद सकता, न भेद सकता, न जला सकता। मानो कोई इस शरीर को छेद भेद भी रहा है, प्राण भी ले रहा है तो ज्ञानी पुरुष यह समझता है कि इसमें तो मेरा कोई बिगाड़नहीं हो रहा। अरे मेरा यह आत्मा यहाँ न रहा, न सही। किसी और जगह पहुँच गया तो इससे मेरा क्या बिगाड़? मरण समय में कष्ट तो उन्हें होता है जिनको यहाँ के समागमों में ममता है और उनको मरण समय में कष्ट नहीं होता जिन्हें यहाँ के समागमों में ममता नहीं है। मरण समय की बात तो जाने दो, जिस पदार्थ में भी ममता है उसके नष्ट हो जाने पर, घाटा हो जाने पर अथवा कुछ बिगाड़हो जाने पर ये जीव बड़ा क्लेश मचाते हैं और मरण समय में यह विकल्प बना रहता है कि लो सारा का सारा वैभव, परिजन सभी एक साथ छूटे जा रहे हैं, इस बात का बड़ा क्लेश होताहै। और योगीश्वरों को न इस शरीर से ममता है, न यहाँ के किसी अन्य साधनों सेममता है, न उन्हें अपने भक्तों से ममता है, जिनका केवल आत्मस्वरूप की साधना में ही उपयोग रमता है ऐसे महापुरुषों को मरण के समय में कोई कष्ट नहीं है। जिसको जिस जगह से ममता नहीं है उसे यदि कोई उस जगह से हटा दे तो वह तुरंत वहाँ से चला जाता है, उस जगह पर ठहरने के लिए वह विवाद नहीं करता। तो चूँकि साधुजनों के ममता और अहंकार नहीं रहा इस कारण ऐसी समता प्रकट हुई है कि कोई पुरुष तो उनकी पूजा कर रहा है और कोई पुरुष क्रुद्ध होकर उनको मारपीट रहा है, फिर भी दोनों में जिनकी समान वृत्ति रहती है ऐसे योगीश्वर कहाँ रहते हैं, कहाँविचरते हैं? समता के बगीचे में। जहाँउत्कृष्ट ज्ञान का अवकाश दिया है अथवा उत्कृष्ट ज्ञान जहाँप्रकट हुआ है ऐसे समता के उपवन में उनका निवास है और विहार है, ऐसे समता के जो धनी है वे ही पुरुष उत्कृष्ट आत्मध्यान करते हैं जिसके प्रसाद से उन्हें मुक्ति की प्राप्ति होती है। गृहस्थ भी वास्तव में सही वही है जिसके चित्त में यह बात बसी रहती हो कि हे नाथ ! परम इष्ट तो साधु मार्ग है। मैं कब साधुता ग्रहण कर लूँ ऐसी तीव्र वांछा रहती हो उसका नाम है गृहस्थ, श्रावक, उपासक। चाहता वह ऐसा नहीं है कि में इस ही भव में मुनि हो जाऊँगा। कुछ समझ रहा है कि आजकल समय बड़ा कठिन लग रहा, शरीर का संघनन भी बड़ा कमजोर मालूम पड़ता और उसकी उम्मीद में नहीं है कि मैं अपनी इस जिंदगी में साधु बन सकूँगा, फिर भी भीतर में लालसा यह लगी है कि ये सब विकल्प विडंबनाएँ, चिंताएँ और दूसरों के श्रम सब बेकार बातें हैं। मेरी स्थिति तो साधुता की बने, निर्ग्रंथ दिगंबर की बने, कपड़ों की भी चिंता नहीं, केवल आत्मा की ही उपासना में निरंतर रहा करूँ ऐसी मन में इच्छा सद्गृहस्थ के रहा ही करती है। न हो सके इस भव में तो अच्छा है, अरे अगले भव में होवेगा, पर उद्धार होगा तो इस ही मार्ग में होगा, ऐसा सद्गृहस्थ के दृढ़ निर्णय रहा करता है। वे योगीश्वर कैसा समता के पुंज हैं कि कोई तो उनकी पूजा रच रहा है और कोई बसूला से चमड़ी छील रहा है, फिर भी दोनों में समान बुद्धि रहती है। अंदाज कर लीजिए कि कितनी उत्कृष्ट उनके समता है।
नोऽरव्यान्नगरं न मित्रमहिताल्लोष्टान्न जांबूनदं,न स्रग्दाम भुजंगमान्न दृषदस्तल्पं शशांकोज्ज्वलम्।