वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1175
From जैनकोष
साम्यमेव न सद्धयानात्स्थिरीभवति केवलम्।
शुद्धयत्यपि च कर्मोघकलंकी यंत्रवाहक:।।75।।
प्रशस्त ध्यान से केवल समता का परिणाम ही स्थिर नहीं होता, किंतु कर्मों से मलिन यह यंत्रवाहक जीव भी शुद्ध हो जाता है, समता भी जगती है, ध्यान के प्रताप से सिद्ध भी हो जाते हैं। कैसी अपने आपके भीतर गति है? क्षण में कुछ चिंतन, क्षण में कुछ।क्षण में दु:ख का पहाड़ इसे दिखता है और क्षण में दु:ख का कहीं नाम नहीं है ऐसा अनुभव करने लगता है। बाहर में दृष्टि की कि दु:ख का पहाड़ दिखने लगता है और जहाँ अंतर्दृष्टि की वहाँ फिर कोई संकट नहीं जँचता। वैराग्य में शांति का उद्भव है और राग में अशांति का उद्भव है। तो तत्त्वज्ञान चाहिए, और जो अपने आपके स्वरूप का स्वयं में निर्णय होता है उसका विशुद्ध ध्यान चाहिए। चाहिए तो यह और लौकिक जन चाहते हैं कि हमें मकान चाहिए, दूकान चाहिए, पूँजी चाहिए, नाम चाहिए, नेतागिरि चाहिए। ये सब मोह निद्रा के स्वप्न हैं। चाहिए तो इसे सिर्फ समता, तत्त्वज्ञान, वैराग्य, सो कुछ चीज नहीं चाही जा रही है। किंतु जो कुछ परभाव आये हैं, गड़बड़ी आयी है, उपाधि लगी हैं उनका वियोग चाहिए। मुझमें मैं ही रहूँ, अन्य कुछ परभाव मेरे में न आयें, यह बात चाहने योग्य है। अन्य चीजों की चाह करना इस जगत में उचित नहीं है। चाह से होता कुछ भी नहीं है। तो ध्यान के प्रताप से समताभाव भी आता है और यह कलंकित आत्मा शुद्ध भी हो जाता है। यह शरीररूप में रहकर अशुद्ध है। आत्मा तो अमूर्त ज्ञानमात्र निर्लेप है और दशा यह बन रही हे कि शरीरों में बंधा-बंधा फिर रहा है। इस आत्मा से यह शरीर छूट ही नहीं रहा है। और छूट भी जाय कभी तो यह सूक्ष्म शरीर नहीं छूटता है, इस स्थूल शरीर के उत्पादक कर्म नहीं छूटते हैं। इन शरीरों से छुट्टी तत्त्वज्ञान और ध्यान के प्रताप से ही मिल सकती है।