वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1176
From जैनकोष
यदैव संयमी साक्षात्समत्वमवलंबते।
स्यात्तदैव परं ध्यानं तस्य कर्मोधघातकम्।।1176।।
जिस समय संयमी पुरुष योगी महात्मा साक्षात् समतापरिणाम का अवलंबन करते हैंतो उनके उस समय ऐसा ध्यान प्रकट होता है जो कर्मों के समूह का विनाश कर दे। लोक में भी तो जिनको समता की प्रकृति पड़ी है, इष्ट अनिष्ट बातों को टाल देने की जिनकी धुन बनी है वे लौकिक पुरुष भी समता के कारण सुखी रहा करते हैं। कोई गुंडा नीच दुष्ट कुछ ऐब करता है, निंदा करता है तो उसका उपाय क्या सोचता है तत्त्वज्ञानी कि उसकी उपेक्षा कर दे। न उसमें राग रखे, न द्वेष रखे, तो उपेक्षा कर देना यह एक तत्त्वज्ञानी का उपाय है, और उस ही उपेक्षा भाव से आत्मा उन्नति के पथ पर पहुँचता है। तो यहाँ भी समता ने मदद दिया। हमारे जीवन में अनेक प्रसंग आया करते हैं। उन सब प्रसंगों में विजय उनकी होती है जिनका चित्त उदार है और जो समतापरिणाम में रहते हैं। तो जिस ही समय योगी समतापरिणाम का अवलंबन लेता है उस ही समय इसके ऐसा अनुपम ध्यान प्रकट होता है जो भव-भव के बाँधे हुए कर्म भी दूर हो जाते हैं। कर्मसिद्धांत पर विश्वास रखते हैं ज्ञानीजीव। जो कम्र किया, जो कर्म बाँधा उसका फल भोगा जायगा, भोगना पड़ेगा। हाँ कदाचित् ऐसा तत्त्वज्ञान और वैराग्य जग जाय जो बाँधे हुए कर्मों के फल को भी बदल दे, यदि ऐसा कोई उच्च पुरुषार्थ बने तो ये बाँधे हुए कर्म टल सकते हैं। अन्यथा ज्यों के त्यों कर्मों का फल भोगना पड़ता है। अत: ऐसा उद्यम हो कि कर्मबंधन न हो। अपने स्वरूप से बाहर जितने भी जो कुछ पदार्थ हैं उनमें राग अथवा द्वेष उत्पन्न न हो, इससे बढ़कर और कोई कमाई नहीं है। आज जो लोग आराम में रहकर बहुत-बहुत वैभव के भी धनी बन जाते हैं वह सब पूर्वकृत धर्म का ही तो प्रसाद है। धर्म सब दिशावों में अच्छा ही फल देता है। धर्म के प्रताप से परलोक में भी सुख होता और इस जीवन में भी सुख रहता है।तत्त्वज्ञानी जैसा का तैसा जानता है। जो रागद्वेष भाव नहीं करता, उसके समता प्रकट होती है।बस इस समता के प्रताप से ऐसा ध्यान बनता है कि भव-भव के बाँधे हुए कर्म भी नष्ट हो जाते हैं। हम सबका कर्तव्य है कि तत्त्वज्ञानी हों, विरक्त हों और अपने आपके प्रभु के निकट अधिक काल रहा करें, इससे ही हम आप सबका कल्याण प्रकट होगा।