वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1180
From जैनकोष
अपास्य खंडविज्ञानरसिकां पापवासनाम्।
असद्धयानानि चोदेयं ध्यानं मुक्तिप्रसाधकम्।।1180।।
हे आत्मन् ! खंड-खंड विज्ञान में रस बनाने वाली जो पाप की वासना है उसको दूर करो और जो असतध्यान हैं उन्हें दूर करो, और मुक्ति का साधनभूत जो उत्कृष्ट आत्मध्यान है उसे अंगीकार करो। देखिये पाप की वासना खंडज्ञान से संबंध रखती है। जब उपयोग विकृत होता है तो वह उपयोग जहाँ लगा है, जिसमें रुचि है, जिसकी वासना बनी है उसका ही तो ज्ञान करेंगे और उसका भी अंशमात्र ज्ञान करेंगे। तो पाप की वासना जब रहती है तब खंडज्ञान होता है और यह पाप बुद्धि खंडज्ञान को ही पसंद करती है। तो ऐसी बुद्धि को तजो जिसमें किसी एक पदार्थ पर किसी-किसी विकृष्ट पदार्थ में हम अपना उपयोग फँसायें, बिगाड़ें, इष्ट अनिष्ट बुद्धि करें, रागद्वेष की वृत्ति बनायें। वह तो कल्याण की चीज नहीं है। खंड ज्ञान के रसिक मत बनो, अखंड ज्ञान चाहो, अखंड ज्ञान तो परिणमन की दृष्टि से प्रभु का है। समस्त विश्व को, लोकालोक को जानने वाले हैं प्रभु। तो प्रभु का ज्ञान अखंड है, क्योंकि समस्त को जान लिया। समस्त को जाना तो वहाँ खंड नहीं रहा, टुकड़ा नहीं रहा। एक तो अखंड ज्ञान मिलेगा प्रभु में और एक अखंड ज्ञान की झाँकी मिलेगी आत्मानुभव में, निज में। सर्वविकल्पों को छोड़कर केवल एक आत्मा के सहज ज्ञायक स्वरूप में ही चित्त लीन हो जाय तो वहाँ भी अखंडता रहती है। तो अखंड ज्ञान की झाँकी है आत्मानुभव। या तो अखंड ज्ञान बनेगा, किसी को मत सोचें, जिनका टुकड़ा नहीं है, या वीतराग सर्वज्ञ हो जाय, निर्दोष हो, कर्मरहित हो तो उसका ज्ञान अखंड बनता है। पापवासना में अखंडज्ञान कोई सा भी नहीं बनता, न आत्मानुभवन का ज्ञान बनता है और न सर्वज्ञता का ज्ञान बनता है, क्योंकि पापवासना खंडज्ञान को ही पसंद करती है। अन्यथा पापों की इच्छा ही नहीं हो सकती। किसी थोड़ी जगह में, एक दो पुरुषों में, किसी एक निश्चित विभूति में रुचि बनती है तभी तो पाप की वासना बना करती है। तो पाप की वासना है तो खंडज्ञान ही यह जीव करेगा। न आत्मानुभव करेगा और न सर्वज्ञता मिलेगी।
खंडज्ञान का मोह तजें। कुछ आ गया ज्ञान में 10-20 बातें कह लो, हम उस ज्ञान को भी नहीं चाहते। हमें किसी का भी परिज्ञान न चाहिए, सब ज्ञान बंद हो जायें, सब चिंतन समाप्त हो मन पावे विश्राम, फिर जो हो सो हो, पर मुझे खंडज्ञान न चाहिए। मेरा तो आत्मानुभव बने जिसमें अखंड ज्ञान है। धर्म अखंड ज्ञान का आश्रय लेता है। खंडज्ञान के रसिक को पाप की वासना बनती है। जो इस खंड ज्ञान को छोड देते हैं उनको ध्यान की सिद्धि होती है। इस ध्यान से मुक्ति की प्राप्ति होती है। मुक्ति का अर्थ है छुटकारा प्राप्त करना। जो है सो वही मात्र अकेला रह जाना इसका ही नाम मुक्ति है। केवल रह जाना, अकिंचन हो जाना, कोई संबंध न रहना, सब औपाधिक भाव दूर हो जाना इसी का नाम है मुक्ति। यही योगीश्वरों का महान ध्येय तत्त्व है। तो पहिले विश्वास तो रखें कि मैं आत्मा स्वत: केवल ही हूँ, मुझमें किसी दूसरे पदार्थ का संबंध नहीं है, ऐसा अपने आपका अनुभव कीजिए तो इन कल्पनाओं की जब रसिकता बनेगी तब समझिये कि वह धर्मभावना दृढता से बन गयी है और जब बाहरी पदार्थों में ही हमारी इच्छा रहेगी अथवा पसंदगी रहेगी तो उससे तो पाप की वासना ही बनेगी। उसे छोड़ें और मुक्ति को सिद्ध करने वाला जो ज्ञान है अर्थात् अपने को केवल अनुभवना और इस ही में मग्न होना, यह यत्न ही मुक्ति को सिद्ध करने वाला है और पूछो तो धर्म उतना ही है। मंदिर में जाकर ढोलक झाँझ बजाना यही मात्र धर्म नहीं है। अपने आपको सब पदार्थों से निराला केवल ज्ञानस्वरूप अनुभव कर सके तो समझिये कि हमने धर्मपालन किया। यह बात एक बिल्कुल सारभूत कही जा रही है। इसी का नाम धर्मपालन है। यह बात चाहे जंगल में कर ले, चाहे मंदिर में। यहाँ बाह्य में क्षोभ मचाने से कुछ भी न मिलेगा। यदि अंतर में अपने आपके कल्याण की दृष्टि नहीं जगती है तो कुछ भी नहीं है।