वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1187
From जैनकोष
उत्कृष्टकायबंधस्य साधोरंतमुर्हूत्तत:।
ध्यानमाहुरथैकाग्रचिंतारोधो बुधोत्तमा:।।1187।।
इस छंद में ध्यान का स्वरूप कहा है। उत्कृष्ट ध्यान उस पुरुष के हो सकता है जिसके शरीर में बज्र-वृषभ-नाराचसंघनन हो। जिनका चित्त ऐसा है कि परीषह नहीं सह सकते, जरा-जरासी बातों में चिंतित हो जाते हैं, ऐसा जिनको शरीर मिला है उनके उत्कृष्ट ध्यान कैसे बने? उत्कृष्ट ध्यान उस पुरुष के बनता हे जिसे साधना भी सहज बड़ी ऊँची प्राप्त हो। बज्रवृषभनाराचसंघनन में बड़ा बल है, बड़ा पौरुष है, और आत्मज्ञान होने के कारण अध्यात्म बल भी बहुत है ऐसा मनुष्य अंतर्मुहूर्त पर्यंत में अपना ध्यान बना सकता है। ध्यान यही है एक ओर चिंतवन का रुक जाना। किसी भी एक विषय की ओर मन लग जाय, एकाग्रचित्त हो जाय उसी के मायने है ध्यान। देखिये जिसमें मैं-मैं का अनुभव होता है वह खुद है ना कुछ चीज। उसी को तो पकड़ना है कि वह मैं हूँ कैसा? जो अनेक इच्छायें करता है, शांति की लालसा रखता है वह मैं हूँ क्या? उस मैं का ही तो निर्णय करना है। तो उस मैं का निर्णय क्यों इतना कठिन बन रहा है? स्वयं ज्ञानस्वरूप है, स्वयं प्रकाश है, स्वयं समझने वाला है, स्वयं ज्ञेय है। ऐसा यह ज्ञान अंतस्तत्त्व क्यों कठिन बन रहा है? यों बन रहा है कि वह अपने किए की, जानने की और हित करने की तीव्र रुचि जगा रहा है। यह सब संसार असार है, अहितरूप है, इसमें विश्वास करने से लाभ न मिलेगा, एक अपने आपके स्वरूप का श्रद्धान करें, विश्वास करें तो उससे अलौकिक आनंद की सिद्धि होगी। यही उपदेश का मर्म है। अपने सहजस्वरूप को पहिचानें, उस ही स्वरूप के निकट रहा करें जिससे अंतरंग आत्मप्रदेश सब पवित्र बन जायें। ज्ञानप्रकाश की किरणों से सारे दोष, क्रोधादिक सब भाग जायें, ऐसा अपने को पवित्र बनायें कि यही आत्महित की बात है।