वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1188
From जैनकोष
एकचिंतानिरोधो यस्तद्धयानं भावना परा।
अनुप्रेक्षार्थचिंता वा तज्ज्ञैरभ्युपगम्यते।।1188।।
ध्यान का स्वरूप बताया है कि जो एक चिंता का निरोध है अर्थात् एक ही ज्ञेय से ठहरा हुआ जो ज्ञान है उसका नाम ध्यान है, यह भावना उससे भिन्न है। उसे ध्यान और भावना के जानने वाले विद्वान अनुप्रेक्षा अथवा अर्थचिंता भी कहते हैं। ध्यान और भावना, पहिले ही होता है अभ्यास। जब उसका विशेषरूप बढ़ जाता है तो उसका नाम हे भावना और भावना से जो और रूप बन जाता है उसका नाम है ध्यान। सब स्थितियाँ ध्यान से होती हैं, खोटा फल भी ध्यान से मिलता है और अच्छा फल भी ध्यान से मिलता है। ध्यान के बिना कोई जीव नहीं है और यहाँ तक कि जिनके मन नहीं है उनके भी संज्ञा के माध्यम से ध्यान रहा करता है। ध्यान की विशेषता संज्ञी जीवों के होती है, पर ध्यान किसी न किसी अंश में हर एक संसारी जीव के रहा करता है। तो खोटे विषयों में चित्त रुक जाय वहाँ ही मन बना रहा करे इसे कहते हैं खोटा ध्यान। और जो धर्मयोग्य विषय में, चिंतन में, स्वरूप में बना रहे वह है उत्तमध्यान। तो इसका नाम अनुप्रेच्छा भी है, भावना भी है और जो ध्यानरूप है उसका नाम है अर्थचिंता। ध्यान तो सबके होता ही है और ध्यान के सिवाय हम आपकी कुछ करतूत नहीं हैं। वैभव जोड़ना अथवा कोई धर्म जलसा मनाना या कमाई करना― ये सब अपने मन की बात नहीं हैं। सब जगह केवल आत्मध्यान भर करना है और ध्यान करने से फिर प्रदेशों में इच्छा के कारण परिच्छेद होता है और उस परिच्छेद के अनुसार फिर हाथ पैर चलते हैं, फिर और-और बातें होती हैं। तो ध्यान ही हम आप सब जगह कर पाते हैं। जैसे कोई मनुष्य किसी दूसरे का बुरा विचारे तो वह अनिष्ट चिंतवन ही कर सकता, बुरा नहीं कर सकता। अपना विचार बुरा बना ले, इतनी तक ही उसकी ताकत है, फिर ऐसा ही उपाय करें ना कि विचार अपने बुरे न बनें, भला ध्यान बना लें। भला ध्यान बनाने के लिए आवश्यक है कि सत्संग करें, स्वाध्याय में विशेष समय लगायें, गुरुसेवा धर्म में अपना समय लगायें, ये सब उपाय हैं अपना ध्यान भला बनाने के। ध्यान अच्छा हो गया तो समझो कि अपना मार्ग साफ हो गया। न अब दु:ख है, न आगे दु:ख रहेगा। उस ध्यान का स्वरूप कहा जा रहा है।