वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1191
From जैनकोष
अज्ञातवस्तुतत्त्वस्य रागाद्युपहतात्मन:।
स्वातंत्र्यवृत्तिर्या जंतोस्तदसद्धयानमुच्यते।।1191।।
अब इसमें अशुभ ध्यान का स्वरूप कहा जा रहा है। जिसने वस्तु का यथार्थ स्वरूप नहीं जाना, जिसका आत्मा रागद्वेष मोह से पीड़ित है ऐसे जीव की स्वाधीन प्रवृत्ति को अशुभ ध्यान कहा गया है। जो शुभध्यान की विशेषताएँ थी उनसे उल्टी बात असत्ध्यान में है। जहाँ राग पाया जाता हो और वस्तु के स्वरूप का ज्ञान न हो ऐसा जो ध्यान है वह असत् ध्यान कहलाता है। संसार के प्राणियों में ये-ये बातें पायी जा रही हैं, वस्तु के स्वरूप का उन्हें परिचय नहीं है। देखिये राग का नाम अधिक क्यों लिया जाता और वीतराग विराग आदिक शब्दों से केवल राग वीतराग ऐसा क्यों कहा जाता है? राग है द्वेष भी है, वीतराग है तो द्वेष बीत गया ऐसा क्यों नहीं कहा? राग-राग को ही क्यों अधिक कहा? इसका कारण यह है कि राग और द्वेष में मुख्य राग है। जितने द्वेष हुआ करते हैं वे किसी न किसी वस्तु में राग के कारण हुआ करते हैं। जिनको भी हम अपना विरोधी अथवा शत्रु मानते हैं तो तब मानते हैं जब हमें किसी बात में राग है और उसका विरोध हो रहा है जिससे तो हम उससे द्वेष करने लगते हैं। तो द्वेष भी जो बनता है जीव में वह किसी न किसी राग के कारण बनता है, इसलिए मुख्य तो राग है। धन में राग हो जाय उस धन में कोई बाधा डाले तो हम उससे द्वेष करने लगते हैं। हमारा अनुराग यदि इज्जत में है और इज्जत में बाधा डाले तो हम उससे द्वेष करने लगते हैं। हमारा जिस प्रसंग में राग है उसका विघात जिसके निमित्त से होता हो उससे द्वेष करने लगते हैं और केवल चेतन पुरुष से नहीं, अचेतन से भी द्वेष करने लगते हैं। अभी दरवाजे से घुसकर घर में जा रहे हो ऊपर का कोई बिरौंदा लग जाय तो उस पर भी गुस्सा करने लगते हैं। हालांकि वह अचेतन है, उसने ठोकर नहीं मारा, खुद से ही लग गयी पर उस पर भी गुस्सा आता है। कभी किसी बच्चे के किवाड़ लग जाय तो उसकी माँ किवाड़ के दो-चार थप्पड़ मार देती है, लो उस बच्चे का रोना बंद हो जाता है। बच्चे के मन में यह बात आ जाती है कि इसने हमें मारा उसे हमारी माँ ने दंड दे दिया। वह बच्चा रोना बंद करके झट हँसने लगता है। तो जितने भी द्वेष होते हैं वे किसी न किसी वस्तु में राग करने से होते हैं। अतएव राग ही राग की बात कही जा रही है। जिसके राग है वही संसार में रुलता है और जिसके राग नहीं है वह संसार से छूट जाता है। द्वेष का नाम बहुत कम बोला जाता है। द्वेष का मूल हुआ राग और राग का मूल हुआ मोह। मोह है, वस्तु के स्वरूप का यथार्थ भान नहीं है, अज्ञान बना हुआ है तो उस स्थिति में चूँकि इस जीव का संबंध पर्याय से है ना तो पर्याय को ‘यह मैं हूँ’ ऐसी बुद्धि करता है। देह को निरखकर ‘यह मैं हूँ’ ऐसा अपना प्रयत्न करता है और फिर जब शरीर से प्रीति हो गयी है, उसे आपा मान ले तो शरीर की साधना में उसका राग हो जाता है। तो सबसे प्रबल मोह है। जिसके मोह नष्ट हो गया उसके राग और द्वेष भी नष्ट हो गये, और जिसके राग द्वेष नष्ट हो गए उसको वीतरागता का आनंद प्राप्त होगा। मनुष्य हुए हैं, हम आप सबको मनुष्य बनकर करने का काम था तत्त्वज्ञान करना, अपने आत्मा के शुद्ध स्वरूप की दृष्टि बनाये रहना― ये दो बातें बनी रहें तो समझो कि उस आत्मा से अमीर और कोई नहीं है। यहाँ के ठाठबाट तो कल्पना की चीज है, उससे कुछ सिद्धि नहीं है। आत्मसिद्धि तो आत्मज्ञान में वस्तुचिंतन में है। तो जिस मुनि के राग नहीं रहा, तत्त्व का चिंतन चलता है उसके तो बताया गया कि यह सत् ध्यान है, और जिस पुरुष के वस्तु स्वरूप का यथार्थ भान नहीं है, राग भी बर्त रहा है उसके असत् ध्यान कहा गया है।
स्वयंभूरमण समुद्र बहुत दूर है अंतिमसमुद्र, और अनगिनते मीलों के बाद है और जितना बड़ा वह समुद्र है उतना बड़ा सारे समुद्र और द्वीप हैं फिर भी उससे वे कम हैं। जैसे बीच में एक गोल बनाया, जंबूद्वीप गोल ही तो है एक लाख योजन का। उसके बाद दूसरा गोल बनाया, इतना बड़ा दूना गोल हुआ तो दो लाख योजन एक तरफ हो गया। अब उस समुद्र का क्षेत्रफल करें तो उससे कम जंबूद्वीप मिलेगा, समुद्र से दूना है द्वीप, उससे दूना है समुद्र। इस तरह द्वीप और समुद्र दूने-दूने होते जाते। अंत का जो समुद्र है वह स्वयंभूरमण है। वह कितना बड़ा है, स्वयंभूरमणसमुद्र में ये सब बाकी द्वीप और समुद्र समा गए। इससे भी बड़ा है। जैसे एक छटांक, उसका दूना आधपाव, उसका दूना पाव, उसका दूना आधसेर, उसका दूना सेर। तो सेर का कितना वजन है? उससे एक ही हिस्सा कम उतना ही वज़न हे उन सब बाँटों का, ऐसे ही एक दूसरे दूने-दूने द्वीप समुद्र हैं। तो आखिरी समुद्र इतना बड़ा है कि सब समुद्र सब द्वीप मिलकर जितने हुए उससे भी बड़ा है स्वयंभूरमणसमुद्र। उस ही स्वयंभूरमण समुद्र में सैकड़ों कोसों के लंबे मच्छ पाये जाते हैं। जहाँ जितना खुला हुआ स्थान है वहाँ उतना बड़ा जीव पैदा होता है। यहीं देख लो। इस शहर में (मुजफ्फरनगर में) चींटियां जितनी बड़ी हो सकती हैं उससे अधिक बड़ी चींटियां मंसूरी और शिमला वगैरह में पायी जाती हैं। तो जहाँ जिसमें जितना खुला स्थान मिला वहाँ जीव बड़ा होता है। तो स्वयंभूरमण समुद्र में एक मच्छ है जो एक हजार योजन का लंबा है और उस ही की आँख में एक तंदुल मत्स रहता है जो अत्यंत छोटी अवगाहना का है। वह मन ही मन कुढ़ता रहता है। वह सोचता है कि यह मच्छ जो अपना मुँह फैलाये है इसमें हजारों मछलियाँ लोट रही हैं, यह नहीं खाता। यदि मैं होता इसकी जगह में तो एक भी मछली बचने न देता, सबको खा जाता, इस प्रकार का परिणाम बनाकर मरण करके वह 7 वें नरक में पहुँच जाता है। तो बुरा ध्यान करने का कोई फायदा नहीं। अपने मन को सम्हालो, सबका हित सोचो, सर्व का भला चिंतन करो, किसी का अहित न सोचो। सद्ध्यान से ही इस जीव का लाभ है और असत् ध्यान से ही इस जीव का पतन है। खोटे ध्यान तजकर अच्छे ध्यानों में अपने मन को लगाना चाहिए। कोई भी प्रसंग हो सर्वत्र उदारता बर्ते। अपने पास जो कुछ आना हो आये, जो जाना हो जाये, ये सब औपाधिक बातें हैं। यहाँ कुछ बंधकर नहीं रहता है। अगर पुण्य का उदय है तो सब कुछ प्राप्त होता है और अगर पुण्य का उदय नहीं है तो कितना ही प्रयत्न कर लिया जाय पर किसी भी चीज की प्राप्ति नहीं होती है। वस्तु का यथार्थ चिंतन ऐसा करना चाहिए कि उदारता का परिणाम जगे, एक ही बात नहीं, सभी बातों में यही शिक्षा लेना है। कोई अच्छा बोले, बुरा बोले, गाली दे, कुछ भी करे तो उसके मात्र ज्ञाताद्रष्टा रह सकें, चित्त में क्षोभ न ला सकें, यही एक महिनीय बात है।