वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1190
From जैनकोष
अस्तरागो मुनिर्यत्र वस्तुतत्त्वं विचिंतयेत्।
तत्प्रशस्तं मतं ध्यानं सूरिभि: क्षीणकल्मषै:।।1190।।
कहते हैं कि जिस ध्यान में मुनि रागरहित होता है और वस्तुस्वरूप का चिंतन करता है उसही को पवित्र आचार्यदेव ने प्रशस्त ध्यान माना है। जिसमें राग लेश न रहे और वस्तुस्वरूप का ध्यान जगे वह प्रशस्त ध्यान है। शुभ ध्यान के दो लक्षण हैं, एक तो उसके प्रति राग न हो और दूसरे वस्तुस्वरूप का चिंतन बना हो वह शुभ ध्यान है। अब अपने-अपने ध्यान की परीक्षा कर लेना चाहिए। हम निरंतर कुछ न कुछ ध्यान बनाया करते हैं, किसी न किसी जगह अपने मन को टिकाया करते हैं वह क्या रागरहित है? अगर रागसहित है तो उसका फल खोटा होगा। दूसरी बात सोचिये― क्या वहाँ वस्तु का चिंतवन चलता है और विषयों में ही वासना बनी रहती है तो इसका फल नियम से खोटा होगा। तो अपने आपकी परीक्षा कर लें― हमारा विचार ध्यान यदि रागरहित है और वस्तु के स्वरूप के चिंतवन से युक्त है तो वह हमारा ध्यान उत्तम है। उसके प्रसाद से हम संसार के संकटों से छूट सकेंगे। और यदि ध्यान विषयकषायों में है, इष्ट अनिष्ट में है तो उसका फल नियम से खोटा है।