वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1194
From जैनकोष
प्रत्येकं च चतुर्भेदैश्चतुष्टयमिदं मतम्।
अनेकवस्तुसाधर्ंयवैधर्ंयालंबनं यत:।।1194।।
आर्तध्यान, रौद्रध्यान, धर्मध्यान और शुक्लध्यान― ये चार ध्यान चार-चार प्रकार के होते हैं। किसी में भेद करना हो तो उसमें साधर्म और वैधर्म दोनों पाये जाते हैं, जहाँ जीव के भेद करते हैं। जीव दो तरह के हैं― मुक्त और संसारी। तो किसी दृष्टि से मुक्त और संसारी दोनों में समानता आना चाहिए, तब तो वह भेद है अन्यथा भेद नहीं है। और किसी दृष्टि से इन दोनों में परस्पर में फर्क भी होना चाहिए, तब तो वह भेद है अन्यथा भेद नहीं है। तो मुक्त और संसारी ये जीवत्व की अपेक्षा तो समान हैं, और मुक्त हैं कर्मरहित, संसारी जीव हैं कर्मसहित। यों इन दोनों में भेद है। तो ऐसे ही आर्तध्यान में चार भेद कहे गए। और सबको विदित है कि इष्ट वियोगज, अनिष्ट संयोगज, वेदना प्रभव और निदान― ये चार आर्तध्यान कहलाते हैं। इन चारों में समानता होना चाहिए तब तो आर्तध्यान के भेद कहलायेंगे तो समानता है। पीड़ा का ध्यान वह इष्टवियोग में भी है, अनिष्ट संयोग में भी, वेदना प्रभव में भी और निदान तक में है। तो क्लेश की दृष्टि से चारों समान हो गए। पर इष्ट के वियोग से हुआ इष्टवियोगज, अनिष्ट के संयोग से हुआ अनिष्टसंयोजक। तो यह वैधर्म हुआ। तो साधर्म और वैधर्म का आलंबन हो तो भेदप्रक्रिया बनती है। जैसे संसारी जीव 5 तरह के हैं― एकेंद्रिय, दोइंद्रिय, तीनइंद्रिय, चारइंद्रिय और पंचेंद्रिय। तो ये पांचों के पांचों संसारी हैं इस दृष्टि से बराबर हैं और ये पांचों आपस में एक दूसरे से भिन्न हैं। कोई एकेंद्रिय है, कोई दोइंद्रिय है, कोई तीन इंद्रिय है, कोई चारइंद्रिय है और कोई पंचेंद्रिय है। तो किसी बात में तो हो समानता और किसी बात में हो भिन्नता तो वह भेद कहलाता है। तो यों चार प्रकार के ध्यान के चार-चार भेद बताये गए हैं। उनमें से अब प्रधान आर्तध्यान का स्वरूप बतलाते हैं।