वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1195
From जैनकोष
ऋते भवमाथार्तं स्यादसद्धयानं शरीरिणाम्।
दिग्मोहोन्मत्ततातुल्यमविद्यावासनावशात्।।1195।।
पीड़ा में उत्पन्न होने वाले ध्यान को आर्तध्यान कहते हैं। वह ध्यान अप्रशस्त ध्यान है और इस ध्यान में जीव की ऐसी दशा होती है कि जैसे दिशाओं के भूल जाने से उन्मत्तता आती है, पागलपन आता है, किंकर्तव्यविमूढ़ता आती है, इसी प्रकार आर्तध्यान में यह जीव किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाता है। इष्ट का वियोग हो उसे फिर कुछ सूझता नहीं है। पिता का, माँ का, पत्नी का, पति का जो भी इष्ट हो उसका वियोग हो तो फिर दुनिया एकदम असार प्रतीत होने लगती है। कुछ नहीं रखा है इस दुनिया में―इस प्रकार का ध्यान बनता है, और वस्तुत: देखो तो जिनका संयोग हुआ है उनका वियोग अवश्य होगा। चाहे जिसका पहिले वियोग हो, पर वियोग प्रत्येक समागम का अवश्य होगा। यह वियोग तो होता ही आया है, किंतु खुद में मोह है सो उसे अनहोनी सी लगती है। बड़ी आफत आ गयी, बड़ा उपद्रव ढा गया, ऐसा प्रतीत होता है। पर यह तो संसार की रीति है, उस रीति से यह सब हो रहा है। तो पीड़ा मों जो ध्यान बनता है आकुलतामय उसका नाम है आर्तध्यान। यह असत् ध्यान है, और जैसे दिशा भूल जाय तो उसमें उन्मत्तता आ जाती है, कुछ पता नहीं रहता, क्या करें, कहाँ जावें, कहाँ रक्षा होगी? जैसे दिशा भूलने वाले पुरुष को सुध नहीं रहती है इसी प्रकार आत्मस्वरूप की दिशा भूल हो जाने पर इसे कुछ भी सुध नहीं रहती। वे चार भेद कौनसे हैं? आर्तध्यान के हैं, उन चारों भेदों को बताते हैं।