वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1201
From जैनकोष
राज्यैश्वर्यकलत्रबांधवसुहृत्सौभाग्यभोगात्यये,
चित्तप्रीतिकरप्रसन्नविषयप्रध्वंसभावेऽथवा।
संत्रासभ्रमशोकमोहविवशैर्यत्खिद्यतेऽहर्निशम्,तत्स्यादिष्टवियोगजं तनुमतां ध्यानं कलंकास्पदम्।।1201।।
आर्तध्यान का दूसरा भेद है इष्टवियोगज। जो पदार्थ इष्ट है उसका वियोग होने पर जो इष्ट के मिलने के लिए चिंतन बना रहता है उसका नाम है इष्टवियोगज आर्तध्यान। आर्तध्यान जितने होते हैं सबमें क्लेश रहता है। अनिष्ट का संयोग होने पर अनिष्ट को मिटाने के लिए वेदना उठती थी। इष्ट का वियोग होने पर उसके संयोग के लिए चिंतवन और वेदना होती रहती है। राज्य, ऐश्वर्य, स्त्री, कुटुंब, मित्र, सौभाग्य, भोग आदिक इनके नष्ट होने पर, विषयों का प्रध्वंस होने पर पीड़ा, भ्रम, शोक, मोह उत्पन्न होता है और इस कारण निरंतर खेदरूप रहता है, यह इष्टवियोगज नाम का आर्तध्यान है। स्वरूपदृष्टि से देखो तो आत्मा का आत्मा के सिवाय अन्य किसी पदार्थ से कोई वास्ता नहीं है वास्तव में। मानने की, कल्पना की बात अलग है। कल्पना में तो कुछ भी मान लो किंतु स्वरूप को देखकर यदि निर्णय किया जाय तो यह निर्णय है सही अपने आपको लक्ष्य में लेकर निरखिये कि मेरे आत्मा का तो मेरे आत्मा के प्रदेशों में ही जो गुण है, शक्ति है उससे ही संबंध है, उससे बाहर किसी भी अन्य पदार्थ से संबंध नहीं है क्योंकि सभी पदार्थ अपने-अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव चतुष्टय को लिए हुए हैं और यह मैं आत्मा अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव चतुष्टय से रहता हूँ, इस कारण न मेरा कर्तव्य किसी अन्य पदार्थ से है और न किसी अन्य जीव का अथवा अजीव का किसी भी पदार्थ का संबंध न मुझमें है, फिर नाता क्या रहा? स्वयं ज्ञान में आकर यह जीव मोह और स्नेह की कल्पनाएँ जगाता है और-और दु:खी होता है। इष्ट में सभी चीजें हैं। जैसे किसी ने यह नियम बनाया है क्या कि कितना धनवैभव हो जाय तो शांति मिला करे। वही मनुष्य जो पहिले यह सोचता था कि 50 हजार की संपदा हो जाय फिर तो कोई आपत्ति ही नहीं है, अच्छी प्रकार से गुजारा है, सब कुछ उसमें समृद्धि है, इससे अधिक की हमें चाह नहीं है, और जब 50 हजार हो जाते हैं तो फिर उसे यह थोड़ा दिखने लगता है। उस ढंग का इसका वातावरण हृदय में बनता है, तो फिर दुबारा सीमा रखता है। मान लो दो लाख हो जायें तो सोचता है कि अब तो बहुत हो गया, अब करना क्या है, और दो लाख होने पर फिर वह भी थोड़ा लगने लगता है। परिणाम यह निकलता कि कैसा ही कुछ हो जाय, करोड़पति भी हो जाय, चक्रवर्ती भी हो जाय तो भी धनवैभव के कारण उसकी ओर से शांति का कोई हल नहीं है। तब फिर क्या इष्ट है? बल्कि जिस पदार्थ को हम इष्ट समझते हैं उसी के कारण हृदय में शोक चिंता और अशांति जगती है। घर के स्त्री पुत्रादिक की जरा-जरासी बात को देखकर क्रोध उमड़ आता हे, और-और ही भाव जग जाते हैं। चिंता और शोक हो जाते हैं। तो जिसे हम इष्ट समझते हैं वही हमारे अनिष्ट का खास कारण है। तो इष्ट क्या है जगत में और अनिष्ट क्या है, कुछ भी नहीं। यह दृष्टि जगे कि आत्मा जो सहजशुद्ध ज्ञायकस्वरूप है तन्मात्र ही मैं हूँ। मैं आत्मा तो चैतन्यस्वभावरूप हूँ ऐसा अपने आपका विश्वास बनाये तो फिर उसे अन्य कोई पदार्थ इष्ट न लगेगा और न अनिष्ट लगेगा। और कुछ पदार्थ न तो इष्ट जँचे, न अनिष्ट जँचे ऐसी ज्ञानज्योति प्रकट हो जाय तो इससे बढ़कर और अमीरी कुछ नहीं है। आत्मा का स्वरूप ज्ञान है और ज्ञान के शुद्ध विलास से ही आत्मा की अमीरी समझी जाती है। आत्मा का शरण बाह्य में कुछ नहीं है, जिसको शरण मानते हैं, इष्ट समझते हैं, जिससे प्रीति जगती है, अरे वह इष्ट क्या है? उसके लिए तो महा अनिष्ट है। रागवश इष्ट जँच रहे हैं। आत्मा स्वयं अपने आप सुखी है। इसका कोई आकुलता का अपने आपकी ओर से कुछ भी कारण नहीं है, लेकिन जब अपने में नहीं ठहरते, अपने से बाहर में किसी पदार्थ में अपना ग्रहण बनाता है, फिर यह जीव स्वयं अपने आप आकुलित हो जाता है। तो ये जो इष्ट पदार्थ हैं बाहर दृष्टि फैल गयी, मेरा इतना बड़ा देश है, देश के निवासी सब मेरे प्रजाजन हैं, इनमें मैं बड़ा माना जाता हूँ। ये लोग मुझे राजा करके मानते हैं, कितने ही विकल्प मचालें, पर है क्या? इस समस्त विश्व में जो कि 343 घनराजू प्रमाण है, एक राजू में असंख्याते योजन के असंख्याते द्वीप समुद्र समा गये। घन में 343 राजू लोक है। कितनी सी यह जगह है जिसमें कोई भी राजा लोगों से अपना बड़प्पन मानता है। और फिर मर गए तो वह भी न रहा। पर ज्ञान में राज्य ऐश्वर्य ये सब कुछ अपने बड़प्पन के साधन प्रतीत होते हैं, ऐसे ही स्त्री कुटुंब पुत्र आदिक जो परिजन हैं वे परिजन इष्ट प्रतीत होते हैं। देखिये ज्ञानी पुरुष किसी भी समय तक घर में रहता है तो क्यों रहता है? उसका कारण यह है कि ज्ञान तो इतना प्रकट होता है कि उसकी अंतर में यह अभिलाषा है कि गृहस्थी बसाकर रहने में आत्मा का कल्याण नहीं है। उसकी भावना है कि निर्ग्रंथ, वनवास, आत्मसाधना में ही समय लगना चाहिए। चित्त में तो यह बात है कि कर्मों का उदय इस प्रकार का है अथवा उसकी स्वयं अशक्ति इतनी है कि वह इस बात में समर्थ नहीं है कि एकाकी निष्प्रह हो जाय, केवल आत्मतत्त्व की रुचि से ही प्रसन्नता में समय व्यतीत कर सके। इतनी जब शक्ति नहीं है तो ऐसी स्थिति में गृहस्थ धर्मपालन करने के सिवाय दूसरा कोई उचित चारा नहीं है। अब गृहस्थी में मोक्षमार्ग में चलने लायक योग्यता कैसे रहती है सो सुनो। गृहस्थ धर्म में पंच अणुव्रतरूप वृत्ति होती है― अहिंसा अणुव्रत, अचौर्य अणुव्रत, सत्य अणुव्रत, ब्रह्मचर्य अणुव्रत और परिग्रह परिणाम अणुव्रत। अहिंसा अणुव्रत तो अपने आप ऐसा सधा रहता है कि त्रस हिंसा का पूर्ण त्याग है और स्थावर एकेंद्रिय जीवों की भी बिना प्रयोजन हिंसा नहीं करता। अहिंसा व्रत की दिशा में गृहस्थ ने यह परिणाम लिया है। यह अणुव्रत बनाता है। बोलना तो चाहिए केवल आत्मा की ही बात। वही सत्यमहाव्रत में, लेकिन यहाँ जब गृहस्थी में रहना पड़ रहा है, अपने आपको अनेक पापों से बचाने के लिए जब गृहस्थ धर्म को अंगीकार किया है तो यहाँ अर्थव्यवस्था भी चाहिए, अत: अनेक प्रकार के रोजगार करने पड़ते हैं। वहाँ उसे बहुत-बहुत वचनव्यवहार भी करना पड़ेगा तो सच्चाई से ईमानदारी से वचनव्यवहार भी करेगा। इसमें सत्य का भी वह गृहस्थ ख्याल रखता है। अचौर्य अणुव्रत में किसी की चीज नहीं चुराता, परधन नहीं हड़पता और अपने आपमें ऐसा विश्वास बनाये रहता कि अध्यात्मदृष्टि से तो कोई भी परपदार्थ को अपना बनाये, अपना माने यह चोरी है। इस चोरी को तो इस ज्ञानी ने छोड़ दिया। अब व्यवहारिक रूप से जो वस्तुवों में उलझन बनी है वह रह गयी है सो उसमें अपना विवेक रखता है। गृहस्थ धर्म में ज्ञानी ब्रह्मचर्य का पालन करता है, स्वदारसंतोषवृत्ति रखता है यह ज्ञानी गृहस्थ, और परिग्रह बिना गृहस्थी का काम चल तो नहीं सकता। ठीक है, लेकिन परिग्रह में लालसा का कहीं अंत हो सकता है क्या? नहीं हो सकता। तीन लोक का भी वैभव मिल जाय तो भी लालसा का अंत नहीं होता। इस मन से कुछ विचार कर लेने में कौनसी कठिनाई है? जरा विचार करें कि वैभव तो कितना भी हो पर उससे संतोष नहीं होता, अत: इस परिग्रह का परिमाण बनाना ही चाहिए। परिग्रह का परिमाण बना लिया। लोग सोचते हैं कि परिमाण तो बना लिया, जैसा मान लो एक लाख का परिमाण बना लिया, और वे हो जायेंगे जल्दी ही एक लाख पूरे, फिर अपना लाभ व्यर्थ ही छोड़ा जा रहा है लेकिन यहाँ सच्चाई यह है कि परिग्रह का संचय किसलिए करता है? जो लखपति है यह करोड़पति होना चाहता है, किसलिए कि दुनिया में मैं प्रथम धनिक कहलाऊँ, अपने आपकी महानता जाहिर करूँ। यदि धनसंचय करने का कोई और दूसरा कारण हो तो बतावो। तो अब परिग्रह का परिणाम कर लेने से देखिये परिग्रह के जोड़ते रहने का जो प्रयोजन है, उद्देश्य है उसमें कुछ फर्क नहीं पड़ता।
परिग्रह का मान लो परिमाण कर लिया, दो लाख का कर लिया तो दो लाख हो जाने के बाद फिर परिग्रह बढ़ाने की बात मन में न आयगी। पर परिग्रह का परिमाण कुछ नहीं है तो चाहे जितना धन संचित हो जाय पर तृष्णा का अंत नहीं आता। परिग्रह परिमाण करने पर यह विधि रहती है कि जितना परिमाण किया उतना पूरा होने के बाद जो कुछ विशेष आय बने उसे दान कर देवे। तो अब देखिये कि दो लाख का परिमाण करने वाले ने यों यदि दो लाख का दान कर लिया और दो लाख उसके हैं ही। इसके बाद यदि वह चार लाख का धनी बन जाय, उसमें दान करता तो इज्जत 4 लाख होने पर बढ़ती या दो लाख ही रहे। दो लाख दान में गए तो उसमें इज्जत बढ़ी। तो परिग्रह का परिमाण करने पर धनसंचय का प्रयोजन नष्ट नहीं होता। यश इज्जत प्रसन्नता चार आदमियों में सभ्यता से, समानता से बैठने का अवसर मिलना ये सब बातें परिग्रह परिमाण से बनती हैं। यों गृहस्थ परिग्रह परिमाण अणुव्रत का पालन करके अपने आपको मोक्षमार्ग के पथ से बराबर चलाये रहता है।
ज्ञानी गृहस्थ कुटुंबियों के भरण पोषण के लिए सारे काम करता है पर उनमें रागभाव नहीं आने देता। देखो जिन जिनका भी संयोग हुआ है उनका वियोग नियम से होगा। यह असगुन की बात नहीं किंतु एक तत्त्व की बात कही जा रही है। यदि संयोग के काल में बहुत प्रीतिपूर्वक रहे और कुछ भी वैराग्य न रहा तो बतलावो वियोग के काल में उसकी क्या स्थिति होगी? जब तक संयोग है तब तक भी यह ज्ञान जगाये रहें कि प्रत्येक पदार्थ भिन्न-भिन्न है और किसी पदार्थ के आधीन कोई दूसरा नहीं है और जिनका समागम हुआ है उनका वियोग किसी क्षण किसी समय भविष्य में अवश्य होगा, ऐसा तत्त्वज्ञान जागृत रहे तो फिर वियोग के काल में विह्वलता न जगेगी। झट धैर्य होगा कि यह बात तो हम पहिले से ही जानते थे। यह तो एक संसार की ही रीति है। इसी प्रकार सौभाग्य भोग भोगसाधन ये भी इष्ट तत्त्व हैं। जब किसी-किसी समय सौभाग्य का विनाश होता है, भोग का भोगसाधन का विनाश होता है उस समय भी इस जीव को एक बहुत विह्वलता उत्पन्न होती है। तो यह ज्ञान बनाये रहें कि सौभाग्य तो एक कलंक है, पुण्य हो अथवा पाप हो, सभी प्रकार के कर्म तो जीव के कलंक हैं, जो इन समस्त कलंकों से दूर हो गये ऐसे, निष्कलंक सिद्ध अरहंत परमात्मा ही पूज्य ईश हैं। सौभाग्य के विनाश का अथवा भोग और भोग साधनों के विनाश का क्या खेद करना? ये तो बाह्यतत्त्व है। मैं आत्मासिद्ध समान तथा प्रभु समान अनंत ज्ञान का ऐश्वर्य का अधिकारी हूँ। ये सब मिली हुई बाहरी बातें मेरे लिए कुछ नहीं हैं, ऐसा जानकर उनमें इष्ट अनिष्ट की बुद्धि न बनायें। इष्टवियोग होने पर शोक करना इष्टवियोगज आर्तध्यान है। इसमें खोटे ध्यानों का वर्णन चल रहा है, इन ध्यानों में रहते हुए आत्मध्यान नहीं बन सकता और न आत्मोद्धार का कोई उपाय बन सकता।