वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1200
From जैनकोष
अशेषानिष्टसंयोगे तद्वियोगानुचिंतनम्।
यत्स्यात्तदपि तत्त्वज्ञै: पूर्वमात्तं प्रकीर्तितम्।।1200।।
समस्त अनिष्ट का संयोग होने पर उनके वियोग का जो अनुचिंतन होता है वह भी आर्तध्यान कहलाता है। अनिष्ट सामने आये तो यह भाव होता है कि यह कब मिटे, इस प्रकार का ध्यान बनता है, निदान होता है तो सभी प्रकार का अनिष्ट का संयोग होने पर उन-उन पदार्थों के वियोग का चिंतन करना, कब दूर हो, इस प्रकार अनिष्ट का संयोग होने पर बल की भावना करना यह भी अनिष्टसंयोगज नामक आर्तध्यान है। आर्तध्यान का फल बुरा है, धर्मध्यान का फल उत्तम है, ऐसा जानकर आर्तध्यान की भूमिका से हटकर उसही उत्कृष्ट आत्मध्यान की भूमिका में आना चाहिए। अपने को ज्ञानमात्र मानें और उसही में तृप्त रहकर प्रसन्न होने का उपाय करें।