वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1212
From जैनकोष
कृष्णनीलाद्यसल्लेश्याबलेन प्रविजृंभते।
इदं दुरितदावार्चि: प्रसूतेरिंधनोपं।।1212।।
आर्तध्यान 3 खोटी लेश्यावों के बल से प्रकट होता है। आर्तध्यान के समय पीत, पद्म शुक्ल लेश्यावों का बल नहीं होता है और पीड़ारूप भाव रहता है, अनुभवन होता है वह अशुभ लेश्यावों में होता है। कृष्णलेश्या में प्रबल क्रोध रहता है। बैर न छोड़े, बहुत गाली-गलौज बके, दया न रहे, ऐसी स्थिति वाले के आर्तध्यान हुआ करता है। नील और कापोत में उससे कुछ कम है और वहाँ भी विषयाकांक्षा नाम की इच्छा आदिक अनेक कुत्सित परिणाम होते हैं। तो इन अशुभ लेश्यावों का बल मिलने से यह आर्तध्यान बढ़ जाता है और जैसे दावानल अग्नि को जलाने में ईंधन कारण है, ईंधन मिल जाय तो अग्नि बढ़ती जायगी ऐसे ही पापरूपी दावाग्नि को उत्पन्न करने के लिए यह आर्तध्यान ईंधन के समान है। आर्तध्यान ज्यों-ज्यों होता है त्यों-त्यों पाप बढ़ते हैं। आर्तध्यान में हुए जैसे आत्मध्यान की संभावना नहीं है, और आत्मध्यान बिना मोक्ष का या शांति का उपाय नहीं बनता। अत: कल्याणार्थी पुरुषों को आर्तध्यान तजना चाहिए।