वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1213
From जैनकोष
एतद्विनापि यत्नेन स्वयमेव प्रसूयते।
अनाद्यसत्समुद्भूतसंस्कारादेव देहिनाम्।।1213।।
यह आर्तध्यान जीव को अनादि से स्वयं सहज बन जाता है। सहज का अर्थ यहाँ स्वभाव से नहीं, किंतु सब उपदेश दिये बिना, धर्म किए बिना, कोई परिश्रम उठाये बिना, कोई यत्न किये बिना आर्तध्यान इस जीव के चल ही रहा है। आर्तध्यान उसे कहते हैं जिसमें क्लेश भोगने का परिणाम बने, खेद होना पड़े। दु:ख का बढ़ाने वाला जो ध्यान है वह आर्तध्यान कहलाता है। सो आर्तध्यान बिना ही यत्न के स्वसम्वेद्य हो रहा है। इसमें कारण यह है कि अनादि काल से खोटे संस्कार जीव में लग रहे हैं, अत: बिना बुद्धि के आर्तध्यान होता है। आर्तध्यान के लिए कोई कुछ सिखाता नहीं है। जहाँ इष्ट का वियोग हुआ बस क्लेश स्वयं होने लगता है, जहाँ अनिष्ट का संयोग हुआ बस क्लेश होने लगता है। कोई वहाँ सिखाता नहीं है ऐसे ही जहाँ शरीर में वेदना हुई, उसके प्रति चिंतन हुआ वहाँ ही पीड़ा उत्पन्न होने लगती है। ऐसे ही आशा, इच्छा, निदान के परिणाम जीव में स्वयं संस्कारवश हो जाते हैं। इस आर्तध्यान से बचकर धर्मध्यान में लगकर ही शांति का मार्ग पाया जा सकता है। वह आर्तध्यान छूटेगा तत्त्वज्ञान से, विवेक से, भेदविज्ञान से।