वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1217
From जैनकोष
रुद्र: क्रूराशय: प्राणी प्रणीतस्तत्त्वदर्शिभि:।
रुद्रस्य कर्म भावो वा रौद्रमित्यभिधीयते।।1217।।
रौद्रध्यान रुद्र शब्द से बना है और रुद्र कहते हैं क्रूर अभिप्राय वाले को। जिसका इतना खुदगर्ज अभिप्राय है कि उसके प्रयोग में दूसरे जीवों की हिंसा हो, दिल दु:खे, अपघात हो, कुछ भी हो किंतु अपना मौज रखने और बिना प्रयोजन से ऐसी खटपट बातें रचना जिससे खुद मौज लेते रहें वे सब भाव रुद्र हैं। यों रुद्र वह प्राणी है जिसका क्रूर आशय है, कोई रुद्र का जो कर्म है, भाव है, ध्यान है उसका नाम रौद्रध्यान है। जब पांडव और कौरवों का एक गुप्त कल्पयुद्ध हो रहा था, पांडव तो शांत प्रकृति के थे। जब उस कल्पयुद्ध में वे हार गए तो उसके बाद एक यह भी सजा दी कि ये यहाँ से चले जायेंगे और लाख के महल में रहेंगे। उस लाख के महल को आग से जला दिया जायगा और ये सब मर जायेंगे। अब बतलावो कि उन कौरवों का अभिप्राय क्रूर है कि नहीं? लेकिन बात कैसे क्या बन गयी? उन पांडवों का हितू था विदूर। और गुप्त रूप से सुरंग बना लिया गया था, वे सब पांडव तो बच गए थे, पर कौरवों की समझ में तो वे भस्म हो गए। और आजकल बताते हैं कि वह लाख का किला बरनावा में है। तो जो क्रूर आशय वाले पुरुष हैं वे रुद्र हैं, और रुद्र का जो काम है, चिंतन है, परिणाम है उसको कहते है रौद्रध्यान। रुद्रध्यान जीव का अनर्थ करने वाला है, संसार में रुलने वाला है, आत्मतत्त्व से विमुख रखने वाला है। कहाँ तो सीधा सरल काम था केवल ज्ञाताद्रष्टा रहने रूप अपने परिणाम बनाने का और कहाँ उससे अत्यंत विरुद्ध नाना विकल्पजालों में रचा गया यह रौद्रध्यान। यह सब अज्ञान का फल है। जीव को अपने आपके सहज ज्ञानस्वरूप का विश्वास नहीं हुआ, इस कारण वह अपने आपमें तो टिक नहीं सका, अपने आपका इसे भान नहीं हो सका, पर्याय में दृष्टि करके, बाहरी पदार्थों से अपना बड़प्पन समझ कर रौद्रध्यान बना लिया।