वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 124
From जैनकोष
सुतीव्रासातासंतप्ता: मिथ्यात्वातंकितर्किता:।
पंचधा परिवर्तंते प्राणिनो जन्मदुर्गमे।।124।।
अज्ञानी प्राणियों का जन्मवन में भ्रमण― अत्यंत तीव्र असाता से संतप्त हुए और मिथ्यात्वरूपी रोग से शंकित हुए यहाँ प्राणी 5 प्रकार से इस जन्मरूपी दुर्गम वन में भ्रमण कर रहे हैं। इस संसार को दुर्गम वन कहा है, जो कि नाना प्रकार के पेड़, कटीले अनेक वृक्ष और लतावों से वेष्टित है। जहाँ इन वृक्षों के फैलाव के कारण अँधेरा सा छाया रहता है, ऐसे वन में प्रवेश करना कठिन है, उस वन से निकलना कठिन है। ऐसे ही इस संसार में जहाँ विषयकषायों की वासनाओं के कारण अँधेरा छाया रहता है, ऐसे इस अज्ञानी जगत् से निकलना कठिन है, इसी से संसार को वन की उपमा दी गई है। इस संसाररूपी दुर्गम वन में यह प्राणी मिथ्यात्व से संतप्त व शंकित हुआ यत्र तत्र भ्रमण करता है। जैसे दुर्गम वन में फँसा हुआ मनुष्य जहाँ सूर्य का प्रकाश भी नहीं आ पाता तो थोड़ा पूर्व दिशा की ओर भागता है, फिर शंकित हो जाता है। फिर कहीं उत्तर और दक्षिण की ओर भागता है। ऐसे ही ये संसार के प्राणी मिथ्यात्व के वशीभूत होकर नाना योनियों में भ्रमण कर रहे हैं और इसी कारण उन्हें तीव्र असाता का संताप उत्पन्न होता है। जब ज्ञान सही नहीं रहता, विपरीत ज्ञान बन जाता है तो वहाँ असाता ही उत्पन्न होती है। यों असाता से तप्तायमान् हुआ मोह के वशीभूत यह प्राणी इस संसाररूपी दुर्गम वन में परिवर्तन करता रहता है।