वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 125
From जैनकोष
द्रव्यक्षेत्रे तथा कालभवभावविकल्पत:।
संसारो दु:खसंकीर्ण: पंचधेति प्रपंचित:।।125।।
संसारी प्राणियों का द्रव्यपरिवर्तन― संसार के परिवर्तन 5 प्रकार के होते हैं― द्रव्यपरिवर्तन, क्षेत्रपरिवर्तन, कालपरिवर्तन, भवपरिवर्तन और भावपरिवर्तन। इन परिवर्तनों के स्वरूप को बताने का प्रयोजन इतना है कि इस जीव को यह ज्ञात हो जाये कि मैंने संसार में भ्रमण करते-करते कैसे अनंतकाल व्यतीत किया है? द्रव्यपरिवर्तन में यह बताया है कि इस एक परिवर्तन में ही शरीर की अनेक वर्गणाएँ भोग उपभोग की समस्त सामग्री अनंत बार ग्रहण की है और छोड़ दी है उसका वर्णन ग्रहीत, अग्रहीत, मिश्र के माध्यम से बताया गया है, वह सर्वजनों को क्लिष्ट रहेगा। उससे इतना ही तात्पर्य ग्रहण करना कि इस जीव ने अनंत बार इस शरीर की वर्गणाओं को भोगा और उपभोग के विषयों को ग्रहण किया और छोड़ दिया। वैसे भी देख लो तो किसी भी विषय के साधन में सुख काहे का है? कल्पनाएँ करके कुछ मान लिया जाय तो वह सत्य सुख तो नहीं कहा जायेगा। भोगों में सुख नहीं है। इस बात का परिचय आप इस पद्धति का ज्ञान करें तो हो जायेगा। जो भोग भोगे हैं अनेक बार और अनेक दिन व्यतीत किए हैं। यदि ये भोग न भोगे जाते, न भोगते तो कौनसी हानि इस जीव को आज थी? इस पद्धति को विचार करके भोगों की असारता सुविदित हो जाती है।
संसारी प्राणियों का क्षेत्रपरिवर्तन व लोक के मध्य का वर्णन― क्षेत्रपरिवर्तन में यह दिखाया गया है कि यह जीव 343 घनराजू प्रमाण लोक में लोक के बीच से क्रम-क्रम से एक-एक प्रदेश बढ़-बढ़कर कितने ही बार पैदा हुआ है। यों लोक के प्रत्येक प्रदेश पर अनेक बार उत्पन्न हुआ है, इतना काल व्यतीत किया है। इस लोक का मध्यस्थान है मेरुपर्वत के जड़ के नीचे के 8 प्रदेश। इस लोक में प्रदेश असंख्याते हैं। असंख्याते होकर भी चाहे वे गिनती में न आयें लेकिन उनमें यह व्यवस्था तो जरूर होगी कि वे प्रदेश इतने हैं कि दो का भाग तो पूरा चला जाय या एक बच जाय। कितने ही अनगिनते प्रदेश हों फिर भी यह व्यवस्था तो संभावित है। जैसे हजार प्रदेश हैं, दो का भाग दो तो पूरा भाग चला जाता है। 1001 प्रदेश हों तो दो से भाग देने पर एक बच जाता है। तो लोक में प्रदेश तो असंख्याते हैं, पर यह संभावना है कि दो का भाग दें तो पूरा भाग चला जाय इतने प्रदेश हैं या एक बच जाय। इस व्यवस्था से लोक में ऊने हैं प्रदेश या पूरे? पूरे हैं प्रदेश। चारों ओर पूरे प्रदेश हैं।
उदाहरणपूर्वक लोक के मध्य का प्रतिपादन― कोई चीज उतनी लंबी उतनी चौड़ी उतनी मोटी हो सब जगह, मान लो कि वह 12 अंगुल की है चारों ओर 12 अंगुल लंबा, 12 अंगुल चौड़ा, 12 अंगुल मोटा कोई काठ है तो बतलावो अंगुल की नाप से उसके बीच कौनसा अंगुल पड़ेगा? 11 अंगुल होता तो कह देते कि छठवां अंगुल है बीच। अब 12 अंगुल में बीच का अंगुल क्या बतायें? प्रकृत में यूनिट एक अंगुल को मान लो सो अंगुल से कम ज्यादा बताना है नहीं। तो लंबाई में बीच की दो अंगुल आयेगी, चौड़ाई में बीच की दो अंगुल आयेगी। चारों दिशाओं से ऊपर नीचे से दो-दो अंगुल आयेगा, तब बीच कितना पड़ा? आठ अंगुल। ऐसे ही यह लोक समसंख्या के प्रदेश वाला है। उन अनगिनते प्रदेशों में दो का भाग पूरा चला जाता है तो ऐसे इस बड़े लोक में बीच का स्थान कितना पड़ेगा? आठ प्रदेश। ऊपर से नापा तो चारों दिशावों के चार प्रदेश रहे। नीचे से नापा तो नीचे से चार प्रदेश रहे। यों लोक के ठीक मध्यभाग 8 प्रदेश हैं।
क्षेत्रपरिवर्तन का रूप― लोक के मध्य में यह जीव छोटी अवगाहना से पैदा हो और ऐसी जगह कि जीव के अथवा शरीर के बीच के 8 प्रदेश और लोक के बीच के 8 प्रदेश, आठ पर आठ रह जायें ऐसी जगह यह जीव पैदा हुआ, फिर उसके बाद किसी एक दिशा में एक प्रदेश बढ़कर वहाँ पैदा हुआ, फिर दुनिया में कहीं भी पैदा हो वह गिनती में नहीं आता। फिर उसके ही बाद में फिर पैदा हो, इस तरह क्रम-क्रम से एक-एक प्रदेश पर पैदा हो होकर सारे लोक प्रदेशों में यह जीव उत्पन्न हो जाय इतने में जितना समय व्यतीत हो उसका नाम है एक क्षेत्रपरिवर्तन। ऐसे-ऐसे इस जीव ने अनंत क्षेत्रपरिवर्तन किये हैं। इन परिवर्तनों का एक मोटा स्वरूप बता रहे हैं।
संसारी प्राणियों का कालपरिवर्तन― कालपरिवर्तन में मान लो कभी जब कल्पकाल शुरू हुआ, अवसर्पिणी के पहिले समय में यह जीव उत्पन्न हुआ, फिर कभी उत्सर्पिणी काल आया और उसके दूसरे समय में जन्म ले ले तो वह क्रम में शामिल होगा, नहीं तो यों अनंत उत्सर्पिणी व्यतीत हो जाय उनके अन्य-अन्य समयों में पैदा हो तो हमारे इस परिवर्तन के क्रम में न आयेंगे। यों फिर उत्सर्पिणी हुआ, उसके तीसरे समय में उत्पन्न हुआ। यों एक-एक समय बढ़कर सारी उत्सर्पिणी और सारी अवसर्पिणी में उत्पन्न हो जाय, उसमें जितना समय लगे वह है एक कालपरिवर्तन। बहुत संक्षिप्त और मोटा स्वरूप बता रहे हैं कि इस जीव ने संसार में कितने परिवर्तन कर डाले।
संसारी प्राणियों का भवपरिवर्तन― अब सुनिये― भव परिवर्तन। जैसे मान लो नरक भव का परिवर्तन बताना है तो नारकी जीव कम से कम 10 हजार वर्ष की उमर का होता है। इससे कम उमर नारकी जीव की नहीं होती और ज्यादा से ज्यादा 33 सागर की उमर होती है। कोई जीव 10 हजार वर्ष की आयु लेकर नारकी बने और फिर वहाँ से मरण करके फिर 10 हजार वर्ष की आयु लेकर नारकी बने, यों 10 हजार वर्ष में जितने समय होते हैं उतने बार दस-दस हजार वर्ष की आयु लेकर उत्पन्न हो, बीच में कहीं भी उत्पन्न हो और नारकी की भिन्न-भिन्न आयु लेकर उत्पन्न हो वह इस गिनती में नहीं है। जब 10 हजार वर्ष के समय बराबर बार 10 हजार वर्ष की आयु लेकर नरक भव धारण कर लिया, फिर एक समय अधिक दस हजार वर्ष की आयु लेकर उत्पन्न हुआ, फिर दो तीन आदि समय अधिक दस-दस हजार वर्ष की आयु लेकर उत्पन्न होता रहे, यों एक-एक समय बढ़ाकर 33 सागर की आयु पर्यंत नरक में उत्पन्न हो ले, इसमें जितना समय लगे उतने समय का नाम है एक नरकभव परिवर्तन ऐसी ही बात चारों गतियों में ले लो। अंतर इतना रहेगा कि देवगति में 10 हजार वर्ष से लेकर 31 सागर की आयु तक ही लगाना, क्योंकि 31 सागर से 1 समय भी आयु सम्यग्दृष्टि ही पायेगा। उसका परिवर्तन होता नहीं। मनुष्यभव में अंतर्मुहूर्त से लेकर तीन पल्य की आयु तक परिवर्तन लेना। ऐसी ही बात तिर्यंचों में लेना। यह है भवपरिवर्तन।
भावपरिवर्तन व उपसंहार― भावपरिवर्तन तो अति विषम है। कितने-कितने कषाय के क्रमवार अध्यवसाय स्थान व्यतीत हो जावें तब एक योगस्थान गुजरे, यों क्रम से सब योगस्थान गुजरे, वहाँ सबसे बड़ा भारी काल व्यतीत होता है। तो 5 प्रकार के परिवर्तनों ये यह जीव संसार में जन्ममरण कर रहा है। क्या किया इसने सर्वपरिवर्तनों में, क्या बीती इस पर, सो आगे श्लोक में सुनिये―