वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1240
From जैनकोष
यच्चौर्याय शरीरिणामहरहश्चिंता समुत्पद्यते,कृत्वा चौर्यमपि प्रमोदमतुलं कुर्वंति यत्संततम्।
चौर्येणापि हृते परै: परधने यज्जायते संभ्रम―
स्तच्चौर्यप्रभवं वदंति निपुणा रौद्रं सुनिंदास्पदकम्।।1240।।
चोरी के काम के लिए निरंतर चिंता बनी रहे, विचार चलता रहे, किसी तरह से मैं अधिक धन प्राप्त कर लूँ चोरी करके भी हर्ष मानना, आनंदित होना, किसी की नजर बचाकर या कोई धोखा देकर कोई चीज विशेष ग्रहण कर लेवे तो उसमें आनंद मानना कि देखो हमने कैसा धोखा दिया कि इतनी चीज अपने को विशेष मिल गयी। अथवा जैसे कोई रेलगाड़ी में बिना टिकट चलता है तो कैसा वह टिकटचेकर को धोखा देकर नजर बचाकर आता है और लोगों से अपनी चतुराई की बात कहता हे कि देखो कैसा मैंने टिकटचेकर को उल्लू बना दिया, यह सब चौर्यानंद रौद्रध्यान है। अन्य कोई अनुभव के द्वारा परधन को हर ले तो यह भी चौर्यानंद रौद्रध्यान है। कोई परधन चुरा लेने की बात बहुत सफाई से कहे उसमें उसे शाबासी देना, इसमें बड़ी कला है यह सब चौर्यानंद रौद्रध्यान है। यह ध्यान विशेषतया निंदा का कारण है।