वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1241
From जैनकोष
कृत्वा सहायं वरवीरसैन्यं तथाभ्युपायांश्च बहुप्रकारान्।
धनान्यलभ्यानि चिरार्जितानि सद्यो हरिष्यामि जनस्य धात्र्याम्।।1241।।
चौर्यानंद रौद्रध्यान का स्वरूप कहा जा रहा है। जीव के अनेक पापबंध का कारण यह है चौर्यानंद। हिंसानंद और मृषानंद इन दो का वर्णन किया ही जा चुका था, अब इस प्रसंग में चौर्यानंद नामक रौद्रध्यान कहा जा रहा है। कोई ऐसा चिंतन करे कि मुझमें ऐसी कला है, ऐसा बल है कि मैं बड़े-बड़े सुभटों की सहायता से अनेक उपाय करके तत्काल ही दूसरे का धन हर सकता हूँ। यह धन इस पृथ्वी में बड़ी मुश्किल से मिलता है। बहुत काल से जो संचित किया हुआ भी हो लेकिन मैं उस सब धन को बड़ी कला से सुभटों की सहायता से, राजा से, बल से हर लाऊँगा ऐसा मैं प्रवीण चोर हूँ। यों अपने मन में चोरी की कला का अभिमान रखना और उसमें प्रसन्नता अनुभव करना सो सब चौर्यानंद नामक रौद्रध्यान है।