वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1248
From जैनकोष
भित्वा भुवं जंतुकुलानि हत्वा प्रविश्य दुर्गाण्युदधिं विलंघय।
कृत्वा पदं मूर्ध्नि मदोद्धतानां मयाधिपत्यं कृतमत्युदारम्।।1248।।
देखो पृथ्वी भी भेद डाला, जीवों के समूह भी मार डाला और गणों के प्रवेश किए किले जीता, बड़े शत्रु पर पाँव देकर मैंने बहुत ऊँचे स्वामीपन का राज्य पाया―यों एक अपने सुख पर अभिमान जगना। जैसे धनिक लोग धनवैभव के, ठाठबाट के समागम में अहंकार से भरे हुए रहते हैं, अपने को सबसे ऊँचा समझते हैं ऐसे ही शासन के प्रसंग में शत्रुवों का विनाश करके, बड़ा पराक्रम करके, समुद्र को भी लांघ करके, पृथ्वी को भी भेद करके, समूल शत्रु का नाश करके जो राज्य पाया है उस पर अहंकार बनाना, लो मैंने इस-इस प्रकार से इतना बड़ा साम्राज्य पाया है ऐसा चिंतन करना भी विषयसंरक्षणानंद रौद्रध्यान है।