वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1249
From जैनकोष
जलानलव्यालविषप्रयोगैर्विश्वासभेदप्रणधिप्रपंचै:।
उत्साद्य नि:शेषमरातिचक्रं स्फुरत्ययं में प्रबलप्रताप:।।1249।।
देखो जल, अग्नि, सर्प, विष आदिक के प्रयोग से विश्वास दिलाना अथवा ऐसे प्रयत्नों से एक दूसरे की मित्रता में भंग करना आदिक प्रपंचों में शत्रु के समस्त समूह को नाश करके कैसा मेरा प्रबल प्रताप है कि मैं लोक में प्रतापी जँच रहा हूँ, यों अपनी बुद्धि का अभिमान करना― यह मन के विषयों में शामिल है और देखिये विषयों का संरक्षण करके मौज मानना यह विषयसंरक्षणानंद रौद्रध्यान है।