वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1257
From जैनकोष
क्वचित्त्क्कक्वचिदमी भावा: प्रवर्तंते मुनेरपि।
प्राक्कर्मगौरवाच्चित्रं प्राय: संसारकारणम्।।1257।।
ये आर्तध्यान और रौद्रध्यान कभी-कभी किसी मुनि के भी हो जाते हैं। जब हो जाय रौद्रध्यान तो मुनि का गुणस्थान नहीं रहता, पर मुनि तो हे बाह्य भेष में और कुछ साधना भी ठीक चल रही है इतने पर भी कोई पूर्वकृत कर्म का उदय होता है कि जहाँ अपने को नहीं सम्हाल सकते, दूसरे का अनिष्ट कर देते। जैसे द्वीपायन मुनि इतने ऊँचे तपस्वी थे, सम्यग्दृष्टि तत्त्वज्ञानी थे कि उनके तैजस ऋद्धि प्रकट हो गयी थी। तैजस ऋद्धि के मायने हैं कि जिसके प्रताप से मुनि यदि किसी का भला विचार कर ले तो दाहिने कंधे से ऐसा तेज प्रकट होता कि उसका भला हो जाय, दुर्भिक्ष न पड़े, रोग व्याधि शांत हो जाय और जब उस ही मुनि को किसी पर तीव्र क्रोध जग जाय, इसका अनिष्ट चिंतन करने लगे तो कंधे से ऐसा तेज प्रकट होता था कि वहाँ के क्षेत्र को भी भस्म कर दे, और लोग भी भस्म हो जायें और खुद भी भस्म हो जाय और नरक में जाय। एक बल है उस बल का यदि उत्तम प्रयोग करे तो उसमें लाभ है और उसका अगर खोटा प्रयोग करे तो उससे बरबादी होती है तो ऐसी-ऐसी भी ऊँची ऋद्धि प्रकट हो जाये, ऐसे मुनीश्वरों को भी पूर्वकृत पाप के उदय से ऐसा आर्त और रौद्रध्यान हो जाया करता है। सो यह पूर्वकर्म के उदय की विचित्रता है। ये दोनों ध्यान आर्त और रौद्र ये संसार के ही कारण हैं, जन्म–मरण बढ़ाने वाले हैं।