वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1267
From जैनकोष
दैन्यशोकमुत्त्रास रोगपीडार्दितात्मसु।
बधबंधनरुद्धेषु याचमानेषु जीवितम्।।1267।।
क्षुत्तृट्श्रमाभिभूतेषु शीताद्यैर्व्यथितेषु च।
अविरुद्धेषु निस्त्रिंशैर्यात्यमानेषु निर्दयम्।।1268।।
मरणार्तेषु जीवेषु यत्प्रतीकारवांछया।
अनुग्रहमति: सेयं करुणेति प्रकीर्त्तिता।।1269।।
जो जीव दीनता से, शोक से, भय से दु:खी हैं उन पुरुषों में अनुग्रह बुद्धि होती है। इनका दु:ख दूर हो― इस प्रकार की वृद्धि होना कारुण्य भावना है। इसी प्रकार राग से पीड़ित आत्मावों के प्रति ये राग से दूर हों― इस प्रकार का करुणाभाव लाना यह कारुण्य भावना है और जो बध बंधन में होते हैं, जो जीवों का पालन करते हैं ऐसे पुरुषों को भी अनुग्रह बुद्धि करना कारुण्य भावना है। कारुण्य भाव जब जगता हे तब उनके समान अपने को मान लिया जाय। इन चार भावनाओं में कारुण्य भावना की बड़ी विशेषता है। मैत्री भावना में सब जीवों के प्रति मैत्री भावना कब जगे जब सबके समान अपने को अपने समान सबको माने। मित्रता छोटे बड़े में नहीं हो सकती, बराबर वाले में हुआ करती है। तो सभी जीवों में मित्रता का परिणाम तभी संभव है जब सबको और अपने को एक समान निरख सकें। तो तत्त्वज्ञानी जीव एक समान निरख लेते हैं। केवल चित्स्वभावरूप आत्मा है वैसा ही मैं हूँ, वैसे ही ये सब हैं। सब जीवों में चैतन्यस्वभाव करके जब समता हमने धारण कर ली तो मैत्री भावना जगती है, इसी प्रकार यह कारुण्य भावना है। दया कब होती है? जिसके प्रति दया की जा रही है उसके समान अपने को समझ सके तो दयाभाव जगता है। जैसे किसी भूख से पीड़ित पुरुष को देखा तो उसे देखकर अपने आपमें भी एक यह आ जाता कि ऐसा भूखा मैं होता तब मुझ पर क्या बीतती है? उस कष्ट का वह अनुमान कर लेता है अपने आप पर घटाकर। करुणा की शैली यही है। चाहे कोई जीव ऐसा न बोल सके, ऐसा विश्लेषण न कर सके तब भी बात यह होती है कि सब दया से भर जाते हैं। कभी रास्ते में कोई जीव काटा छेदा भेदा जा रहा हो, सताया जा रहा हो तो उसे देखकर जो करुणा जगती है कि यह जीव भी मेरे ही समान है, इस पर जो विपत्ति आयी है ऐसी कभी मुझ पर आये तो कैसी भीतर में पीड़ा उत्पन्न होती है। ये सब बातें देखते ही दूसरी सब बातें आ जाती हैं। कहने में तो देर लगती है किंतु इस झलक में देर नहीं लगती, तो जब उन दु:खी जीवों के समान अपने आपमें उसे निरख लिया गया अंतर में तब यह कारुण्य जगा। कारुण्य का दूसरा नाम है अनुकंपा। और अनुकंपा का सीधा अर्थ है अनुसार कंप जाना। जैसे कि कोई दु:खी पुरुष है जैसा दु:ख है उसके अनुसार यहाँ का दु:ख अनुभव में आये तब अनुकंपाभाव जगता है। किसी पशु को बहुत अधिक पिटता हुआ देखकर जो मन में दया उपजती है उस दया का कारण यह है कि उसे पिटता देखकर तुरंत ही अपने आपमें यह भीतर भावना बन जाती है कि मैं ही तो यह हूँ, जीव मैं हूँ, जीव यह है। जो बात इस पर बीत रही है वह मुझ पर भी बीत रही है, वह मुझ पर भी बीत सकती है, यों खुद में बसी भावना बनी तब जाकर कारुण्य भाव बना और उन दु:खी जीवों का दु:ख दूर करने के लिए सब खर्च भी करने लगा। इस मर्म को तो वे भिखारी तक भी जानते हैं जो जाड़े के दिनों में उघाड़ें होकर कँपती हुई भाषा में बड़े कर्त स्वर से चिल्लाते हैं और धनिक लोग दया आ जाने के कारण उन्हें कपड़ा अन्न वगैरह दे डालते हैं। तो वे धनिक लोग पहिले उसके ही दु:ख के समान अपने में दु:ख बना डालते हैं तब अपने आप पर दया करके उनके प्रति करुणा का भाव लाते हैं। यदि खुद में वैसे दु:ख का अनुभव न बने तो उन पर दया नहीं आ सकती। जो पुरुष क्षुधा तृषा थकान से पीड़ित हैं, जो बाधावों से व्यथित हैं उनमें अनुग्रह बुद्धि होना इसका नाम कारुण्य है। भूख सबको लगती है, क्या धनिक भूखे नहीं रहते हैं लेकिन भूख उन्हें भी लगती है तब ही तो भोजन करते हैं और भूख का उन्हें अनुभव है। यद्यपि उन्हें प्यास की वेदना नहीं सहनी पड़ती चिरकाल तक लेकिन पानी पीते हैं ये धनिक जन भी तो कोई प्यास से पीड़ित हो तो झट उसकी वेदना को समझते हैं। तो भूख और प्यास की वेदना का अनुभव सभी जीवों को है। तो ये दयालु पुरुष दूसरों की क्षुधा तृषा आदिक वेदनाओं को देखकर सब तुरंत समझ लेते हैं कि यह कितना दु:खी है? तो यह जो चित्त में बात हुई उससे जो खुद दु:खी हुआ उस दु:ख को दूर करने के लिए लोग उपकार करते हैं, दान करते हैं, दूसरों का दु:ख छुटाते हैं। तो ऐसे कथित प्राणियों में अनुग्रह बुद्धि करना इसका नाम है कारुण्य भावना। जो पुरुष निर्दय पुरुषों की निर्दयता के कारण पीड़ित हैं और मरण के दु:ख से प्राप्त हैं उन दु:खी जीवों के दु:ख को दूर करने के उपाय की बुद्धि करना, भाव रखना इसका नाम कारुण्य भावना है। दूसरों के दु:ख को देखकर स्वयं में क्लेश होना, अनुकंपा बनना यह कारुण्य भावना है। तत्त्वज्ञानी जीव विषयकषायों से दु:खी जगत के जीवों के प्रति यह भावना करता है कि इनके ये विषयकषायों के विकल्प दूर हों और ये वास्तव में सुखी हों।