वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1266
From जैनकोष
जीवंतु जंतव: सर्वे क्लेशव्यसनवर्जिता:।
प्राप्नुवंतु सुखं त्यक्त्वा वैरं पापं पराभवम्।।1266।।
इस मैत्री भावना में यह ज्ञानी पुरुष यह भावना कर रहा है कि ये सब जीव कष्ट विपदावों से दूर होकर सुखपूर्वक जीवे और बैर, पाप, अपमान को छोड़कर सुख को प्राप्त हों। इस प्रकार की भावना को मैत्री भावना कहते हैं। किसी को किसी प्रकार का कष्ट है, किसी को किसी प्रकार का। लौकिक पुरुष तो इसी बात में कष्ट समझते हैं कि मेरे धन कम हो गया, मेरी आजीविका अच्छे ढंग से नहीं चल रही है। कोई लोग तो इसको ही कष्ट समझ लेते कि आज किसी वस्तु का सुबह कुछ भाव बढ़ा हुआ सुना था शाम को भाव कुछ घट गया है। चीज यद्यपि वही की वही घर में रखी हैं, लेकिन कष्ट मानते हैं। तो जिसके जैसी बुद्धि है वैसे ही वह कष्ट समझता है। ज्ञानी जीव तो कष्ट इसको समझता है कि प्रभु की तरह विशुद्ध ज्ञानानंद स्वभाव वाले इस आत्मा में विषय और कषायों के भाव उत्पन्न होते हैं और इसी दृष्टि से जीवों को कष्ट में पड़ा हुआ देखता है। हाय ! कितना बड़ा कष्ट है कि है तो आनंदमय आत्मा और विषयकषायों के भाव हो रहे हैं जिससे निरंतर क्षोभ चल रहा है। ज्ञानी पुरुष इन सब जीवों के प्रति ऐसी भावना करता है कि इनके कष्ट विपत्ति ये दूर हों, शुद्ध ज्ञान प्रकाश हो और शुद्ध रूप से ये जीवे। ज्ञान दर्शन की प्राप्ति जिनके है उन पुरुषों की शुद्ध वर्तना रहती है। यों तत्त्वज्ञानी पुरुष समस्त जीवों के प्रति ऐसी भावना करता है और फिर लौकिक पुरुष व्यवहारिक कष्टों से दूर हों इस प्रकार की भावना करते हैं, और ज्ञानी भी चूँकि ये लौकिक कष्ट में रहेंगे तो इनमें धर्मपालन की योग्यता नहीं जग सकती, अत: उन कष्टों से ये दूर रहें ऐसी भावना करता है। और वे सभी जीव बैर पाप और पराभव को छोड़कर सुखी होवें। जब चित्त में बैरभाव की दृष्टि रहती है तो चित्त में चिंताएँ रहती हैं। तो ये पुरुष इस बैरभाव को छोड दें। ऐसी मैत्री भावना में ज्ञानी पुरुष चिंतन करता है। इसी प्रकार पापपरिणाम जब होता है तब भी चित्त में चैन नहीं रहता है। हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील, लालच जब ये परिणाम पैदा होते हैं तो यह अशांत रहता है। सो ज्ञानी जीव समस्त जीवों के प्रति यह भावना करता है कि ये जीव पापपरिणाम को छोड दें और सुखी हों। इसी प्रकार पराभव की कल्पना जब चित्त में रहती है तब शांति नहीं मिलती। मेरी पोजीशन मिट गयी, मेरा अपमान हो गया― इस प्रकार का भाव चित्त में रहे तो बड़ा कष्ट है। तत्त्वज्ञानी पुरुष सब जीवों के प्रति यह भावना कर रहा है कि जीवों के पराभव के कष्ट भी न रहें। वस्तुत: किसी जीव का कोई पराभव कर नहीं पाता। स्वयं पराभव मान ले तो लो पराभव हो गया, लेकिन कोई चेष्टा ही तो करेगा। कोई सम्मान करे अथवा अपमान, उससे किसी दूसरे का क्या बिगाड़? जगत के ये जीव हैं, अपने आपमें परिणाम रहे हैं, कोई जीव किसी दूसरे का कुछ भी करने में समर्थ नहीं। यहाँ के सम्मान अपमान क्या हैं और यह मैं क्या हूँ, ये सम्मान अपमान करने वाले लोग क्या हैं? इस पर भी तो कुछ विचार करना चाहिए। ये लोग सब मायारूप हैं, संसार में जन्म मरण करते फिर रहे हैं, ये कोइ्र मेरे अधिकारी नहीं। इनकी दृष्टि में मैं भला जँच गया तो इससे मेरा क्या सुधार और इनकी दृष्टि में बुरा बच गया तो इससे मेरा क्या बिगाड़? यह मैं स्वयं आत्मा भगवान हूँ, जो कुछ करूँगा करता हूँ वह खुद में ही होता है। इनके खुद जानकार रहते हैं, यह जीव यदि पराभव बनाता है, पाप बनाता है तो उससे इसका बिगाड़ है और अपने में यदि ज्ञान और वैराग्य बनाता है तो उससे इस जीव का सुधार है। तो पराभव की कल्पना करने में स्वयं को क्लेश है। इन पराभव की कल्पनाओं का परित्याग करें और सुखी होवें। ऐसी भावना यह धर्मध्यानी पुरुष सब जीवों के प्रति कर रहा है। मैत्री भावना के बाद अब कारुण्य भावना कह रहे हैं।