वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1293
From जैनकोष
ध्यानध्वंसनिमित्तानि तथान्यान्यपि भूतले।
न हि स्वप्नेऽपि सेव्यानि स्थानानि मुनिसत्तमै:।।1293।।
जो-जो पूर्वोक्त स्थान कहे उसी प्रकार अन्य स्थान भी जो ध्यान के विघ्नकारक हों वे सभी स्थान ध्यानसाधक मुनिराज को छोड़ देने चाहिए। जिस समय आत्मा के स्वरूप का ध्यान बनता है तो चूँकि समस्त विकल्प उसके टूट जाते हैं उस निर्विकल्प वातावरण में जो आनंद उत्पन्न होता है वह आनंद तीन लोक के वैभव को भोगने पर भी नहीं हो सकता। उस ही आनंद में यह सामर्थ्य है कि भव-भव के बांधे हुए कर्म भी नष्ट हो जाया करते हैं। ऐसे उत्कृष्ट सारभूत आत्मा की सिद्धि करने वाले पुरुषों का कितना त्यागभाव होना चाहिए, कितनी उदारता होनी चाहिए उसका अंदाज कर लीजिए कि जब लौकिक असारभूत वैभव के लिए यह मनुष्य सर्वस्व बलि करना चाहता है तो फिर जो लोकोत्तम है जिससे संसार के सर्व संकट दूर हो जाते हैं ऐसा ध्यान करने के लिए सब कुछ त्याग देना चाहिए। उसमें योग्य स्थान भी आ गए। धर्मध्यानी पुरुष को ऐसे-ऐसे सब स्थान जो मोह बढ़ायें क्षोभ करें वे सब त्याग देने चाहिए। जिसमें जिसके लिए लगन होती है वह उसकी साधना के लिए सर्वस्व समर्पण करने को तैयार रहा करता है। जब तक आत्मकल्याण की धुन नहीं बनती तब तक आत्म-उद्धार के लिए बाह्य वैभवों का परित्याग नहीं कर सकते, आराम और विश्राम को छोड़ नहीं सकते। तो ये विशुद्ध ध्यान के इच्छुक योगी संत ऐसे दूषित स्थानों का परित्याग कर देते हैं। ध्यानसाधना चाहिए ना तो सबसे पहिले मन प्रसन्न हो तब तो मन की एकांतता बने। मन प्रसन्न होने का साधन है ज्ञानतत्त्व, वैराग्य। जिसका चित्त वैराग्य में वासित है, तत्त्वज्ञान में अनुरक्त है वह पुरुष अपने मन को प्रसन्न रख सकता है और व्यवहार में संयम की आवश्यकता है, ऐसे विशुद्ध वातावरण की जहाँ मन प्रसन्न रह सकता है, फिर मन की एकांतता बने, आत्मा का ध्यान करे ऐसे स्थानों में रहकर ध्यान की सिद्धि होती है। क्षोभकारी स्थानों में ध्यान की सिद्धि नहीं है, इस प्रकार यह प्रकरण समाप्त हुआ।