वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1297
From जैनकोष
सिद्धकूटे जिनागारे कृत्रिमेऽकृत्रिमेऽपि वा।
महर्द्धिकमहाधीरयोगिसंसिद्धवांछिते।।1297।।
सिद्धकूट में कोई ऐसा स्थान हो जहाँ से सिद्ध हुए हों अथवा सिद्ध की जहाँ मान्यता हो, कुछ स्थल बना हुआ हो मंदिर आदिक ऐसे स्थानों में कृत्रिम अकृत्रिम चैत्यालयों में जाकर ध्यान करे, जो स्थान बड़े-बड़े ऋद्धिधारी महाधीर योगीपुरुष चाहा करते हैं वह स्थान ध्यानार्थी को ध्यान के योग्य कहा गया है। इस लोक में आत्मा के ध्यान और उपयोग के सिवाय है क्या शरण जीव का? बाहर में कौनसा पदार्थ है? ऐसा जिसका शरण गहें तो आत्मा को शांति प्राप्त हो? कोई भी ऐसा पदार्थ नहीं है। जो चाहिए उससे भी बढ़ जायें तो उसमें भी शांति नहीं है। इज्जत, प्रतिष्ठा, नेतागिरी, देश विदेश के सम्मान ये भी बढ़ जायें तो उसमें भी शांति नहीं है। बाहर में कोई पदार्थ ऐसा हो ही नहीं सकता जिससे शांति की प्राप्ति हो। सभी बाह्य पदार्थ अपने स्वरूप से हैं हमारे स्वरूप से नहीं। दूसरी बात वे बाह्य पदार्थ भी अनित्य हैं, पर्यायरूप ही तो हैं। जो दिख रहे हैं नष्ट हो जायेंगे। उनका क्या विश्वास? किस संयोग में हर्ष मानते हो? संयोग में जो सुख माना है वह उस काल में तो मूढ़ है ही, पर इसके बाद में उसे बड़ा क्लेश भी होता है। ज्ञानभाव का शरण गहो तो वह स्वाधीन है, सुगम है, आत्महित करने वाला है।