वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1298
From जैनकोष
मन: प्रीतिप्रदे शस्ते शंककोलाहलच्युते।
सर्वत्तुर्सुखदे रम्ये सर्वोपद्रववर्जिते।।1298।।
ऐसे ध्यान में ध्यान करना जो मन को प्रसन्न रखे। मन की प्रसन्नता विशुद्ध विचारों में है। संसार के सुखों में मन प्रसन्न तो रहता नहीं। मौज और बात है प्रसन्नता रहना और बात है। मौज क्षोभ को लिए हुए होती है और प्रसन्नता शांति का वातावरण लेकर होती है। जो प्रसन्नता उत्पन्न करना चाहे वह कोलाहल से रहित जो स्थान है उसमें ध्यान करे। मुझे कोई यहाँ से भगा देगा, उठा देगा ऐसी भी शंका हो तो वहाँ ध्यान क्या हो सकता है? जिस स्थान पर किसी का स्वामित्व नहीं, कोई कोलाहल नहीं ऐसे स्थान में ध्यानार्थी पुरुष ध्यान किया करते हैं। जब कभी बड़ा संकट सा मालूम पड़े, रोग का संकट हो या अन्य प्रकार की चिंतावों का संकट हो, कोई विपदा विडंबना आये तो एक बार उपेक्षा करके तो देख लो, समस्त बाह्य पदार्थों का ख्याल छोड़कर, जो होता हो तो, कैसी भी स्थिति गुजरो, सर्व की ममता त्यागकर ऐसा अपने भीतर बैठ जायें। लो यह विपदा नहीं छोड़ती― मत छोड़ो, जिस बात पर विपदा आयी बात को छोड़ दो और अपने आपके स्वरूप में बैठ जावो, जो गुजरता हो गुजारो, मुझे कोई प्रयोजन नहीं। यह मैं तो अपने स्वरूप में इतना ही मात्र हूँ। यों भीतर में प्रेरणा करके सबसे हटकर अपने आपमें ठहर जाय तो वहाँ सारे संकट दूर हो सकते हैं। सबको इसी घाट आना पड़ेगा अगर सुख शांति चाहिए हो तो। चाहे जिंदगी में इस घाट लग जाये चाहे मर मरकर किसी और जिंदगी में, पर एक इस विशुद्ध ज्ञान के घाट पर आये बिना शांति नहीं हो सकती। ऐसे रम्य स्थान पर रहें जो सर्व ऋतुवों में सुख दे, जाड़े में न ज्यादा जाड़े, न गर्मी में अधिक गर्मी। ऐसा स्थान बहुत आगे दक्षिण में है ऐसा सुनते हैं। आस-पास भी कहीं ऐसा रम्य स्थान मिले तो वह स्थान ध्यान के योग्य बताया है। जिसके धर्मध्यान की धुन बन जाती है वह तो अपने मन के ध्यान के प्रोग्राम से चलेगा और कितने ही लोग तो ऐसे भी होते हैं कि जानबूझकर ऐसी कोई बात गढ़ देते कि जिससे लोक में हमारी बुराई फैल जाय जिससे लोग फिर हमारे पास न आयें। ऐसा कोई कौतूहल पैदा कर देते हैं वह अनेक झंझटों से बच जाता है। एक गुरु शिष्य थे, वे एक छोटी सी पहाड़ी पर रहते थे। वह गुरु एक संन्यासी था, इधर उधर से मांगकर भिक्षा लावें और खा लें। उनकी गाँवों में बड़ी महिमा पहुँची। राजा को भी खबर हुई तो एक दिन हजारों आदमियों के साथ सज-धजकर चल दिया। जब वह संन्यासी देखता है कि राजा आ रहा है तो झट उसे ध्यान आया कि अगर राजा मुझे मान लेगा तो फिर दिनभर मेरे पास लोगों का ठट्ठ जमा रहा करेगा। जब राजा आयगा तो प्रजा के लोग भी बहुत आया करेंगे। सो संन्यासी ने सोचा कि कोई ऐसी बात रच दें कि राजा को हमसे घृणा हो जाय। तो शिष्य को समझाया― देखो बेटा यह राजा आ रहा है, इसको अपन लोगों से घृणा हो जाय ऐसा काम करना है।....अच्छा बतलावो महाराज क्या करें?....देखो जब वह राजा पास आ जायगा तो हम तुम दोनों खाने-पीने की बात करने लगेंगे। जब राजा पास आया तो शिष्य से गुरु कहता हे कि बेटा आज तुमने कितनी रोटियाँ खाई?....महाराज ! 10 खाई,...हमने तो 8 ही खाई....महाराज ! कल तुमने 10 खाई थी हमने 8 ही खाई थी। इस प्रकार की बातें सुनकर राजा चला गया, सोचता है कि यह संन्यासी तो खाने-पीने के लिए लड़ता है। लो संन्यासी बहुत सी झंझटों से बच गया और ध्यान स्वाध्याय आदि खूब करने लगा। अरे यश हो चाहे अपयश, साधुजनों को क्या परवाह? उनके लिए तो यश अपयश सब बराबर हैं, हाँ अपने आपमें अपना उपयोग ऐसा निर्मल बने कि जिससे अपनी शांति का रास्ता बराबर सही मिलता रहे। यह ध्यानार्थी पुरुषों के चित्त की एक बात कह रहे हैं।