वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1302
From जैनकोष
दारुपट्टे शिलापट्टे भूमौ वा सिकतास्थले।
समाधिसिद्धये धीरो विदध्यात्युस्थिरासनम्।।1302।।
धीर वीर पुरुष समाधि की सिद्धि के लिए काठ के तख्तों पर भली प्रकार अपने लिए स्थल आसन बनायें। बढ़ई के बनाये तखत नहीं, कारीगर से बनाये तखत नहीं, किंतु जंगल में कोई पड़ा हो उस पट्ट पर बैठकर ध्यानार्थी पुरुष ध्यान करें। जितनी अपेक्षा रहेगी बैठने, उठने, सोने, रहने में उतनी ही ध्यान में बाधा आ सकती है। ध्यानार्थी पुरुष धन के लिए क्या-क्या कष्ट नहीं सह सकता? देश विदेश घूमे, सर्दी गर्मी में घूमे, भूखा प्यासा रहे, बीसों आदमियों की बात सुने, धर्मशाला वगैरह में छोटे से चपरासी द्वारा कितने ही प्रकार की बातें सुनने को मिलें, यों कितनी ही प्रकार के कष्ट सहता है वह ध्यानार्थी पुरुष। तो ध्यानार्थी पुरुष भी अपने ध्यान की सिद्धि के लिए जगह-जगह घूमते हैं, उनका सर्वत्र विहार है। जहाँ मन चाहा तहाँ चले गए, जितने दिन चाहे रहे निर्जन स्थान में और अपनी जरूरी सामान पुस्तक आदि की पोटली लेकर किसी निर्जन स्थान को चले जाते हैं। उनके पास सामान इतना अल्प है कि उन्हें दूसरों की अपेक्षा नहीं रहती। ऐसी स्थिति वाले योगी पुरुष ध्यान की साधना करते हैं। तो ये धीर वीर पुरुष शिलापट्ट पर अथवा भूमि पर या रेतीले स्थान में समाधि की सिद्धि के लिए अपना आसन बनायें, यह बात कैसे हो? इसका वर्णन अब आगे होगा।