वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1312
From जैनकोष
अविक्षिप्तं यदा चेत: स्वतत्त्वाभिमुखं भवेत्।
मुनेस्तदैव निर्विघ्ना ध्यानसिद्धिरुदाहृता।।1312।।
ध्यान की सिद्धि का कारण स्थान और आसन का सही होना है। ये दो बातें सर्वप्रथम चाहिए। ध्यानार्थी के लिए प्रथम तो ध्यान करने का स्थान योग्य हो जैसा कि पहिले बताया जा चुका है। वीतरागता का वातावरण हो, जहाँ किसी असंयमीजनों का आवागमन न हो ऐसा विशुद्ध निर्जन एकांत स्थान ध्यानार्थी के योग्य होता है। इस प्रकार योग्य स्थान पर पहुँचने पर फिर विशुद्ध आसन से रहे, पद्मासन, कायोत्सर्ग आदिक आसनों से रहे तो उसमें ध्यान की सिद्धि होती। यों ध्यान सिद्धि के लिए दो बातें खास आवश्यक हैं, जिस मुनि के इन दोनों में से एक भी बात नहीं होती, उसका चित्त विक्षेपरहित नहीं बन पाता। स्थान यदवा तदवा और आसन में भी कोई बल न हो। शरीर के सुखियापन के कारण शरीर के मोह के कारण बराबर मिनट-मिनट में आसन बदलता रहता हो ऐसा शरीर का अनुरागी पुरुष ध्यान के योग्य नहीं होता।