वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1314
From जैनकोष
संविग्न: संवृतो धीर: स्थिरात्मा निर्मलाशय:।
सर्वावस्थासु सर्वत्र सर्वदा ध्यातुमर्हति।।1314।।
कैसा स्थान हो जहाँ मनुष्यों का आवागमन नहीं, जनता से रहित क्षेत्र है अथवा जनसंकीर्ण क्षेत्र हो, बहुत से पुरुष जहाँ निवास करते हैं, आते हैं, जाते हैं ऐसा कोई क्षेत्र हो, अथवा कोई योगी अच्छी प्रकार बैठा हो आसन से, ढंग से अथवा कोई खोटे प्रकार बैठा हो, यदि चित्त स्थिरता को धारण करता है तो समझिये कि उसके आत्मा में ध्यान की पात्रता है। ध्यानों में ध्यान एक है आत्मध्यान। ध्यान के बिना यद्यपि कोई पुरुष रह नहीं सकता। प्रत्येक जीव के ध्यान निरंतर रहता है लेकिन वे सब ध्यान तो संसार में रुलाने के ही कारण बन रहे हैं। तो वह ध्यान नहीं है किंतु अपने आपके आत्मा का ध्यान ही वास्तविक ध्यान है। जैसे ज्ञानों में ज्ञान-ज्ञान का ज्ञान करते हैं ऐसे ही ध्यानों में ध्यानी ध्यान का आधारभूत अंतस्तत्त्व का आश्रय लेते हैं। तो किसी भी स्थिति में हो, कैसी भी जगह में हो, कैसे ही आसन में हो यदि चित्त स्थिरता को प्राप्त है, मन जिसका चलित नहीं है ऐसे पुरुष को ध्यान की सिद्धि होती है, उसका निषेध नहीं है।