वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1315
From जैनकोष
विजने जनसंकीर्णे सुस्थिते दु:स्थितेऽपि वा।
यदि धत्ते स्थिरं चित्त न तदास्ति निषेधनम्।।1315।।
ध्यानी मुनि ध्यान के समय प्रसन्न मुख होकर या तो सीधा पूर्व दिशा में ही मुख करते हैं अथवा उत्तर दिशा में भी मुख करके ध्यान करते हैं। पूर्व दिशा में ध्यान करने की बात अधिकतर क्यों कही गई है कि उस दिशा में मन प्रसन्न रहता है, सूर्य का उदय पूर्व दिशा में होता है उसकी सुध बनी रहती है। और अपने आपमें इस प्रकार घटता है जैसे सूर्य का उदय पूर्व दिशा से होता ऐसे ही ध्यान के फल में जो कुछ भी विशुद्ध वृत्ति होगी, वह आत्मा से होगी पर बाह्य साधनों में पूर्व दिशा कुछ शुभकारी दिशा है ध्यान जमाने वाली और स्वास्थ्य की दृष्टि से प्रात: काल पूर्व दिशा में बैठकर पूर्व दिशा को मुख करके जितना अधिक सूर्य की किरणों का सेवन किया जाय तो उसमें ज्ञानबल की भी विशेषता आ जाती है। यों पूर्व दिशा के सम्मुख होकर ध्यानी पुरुष ध्यान करते हैं और उत्तर की तरफ मुख करके ध्यान किया जाता है उसका कारण है कि उत्तर दिशा में विदेह क्षेत्र है जहाँ हमेशा तीर्थंकर रहा करते हैं। तो उत्तर दिशा में मुख करके बैठने से सामने देखा नजर में विचार में कि यह तीर्थंकर देव हैं, ये धर्मात्मा साधु-संत ऋषिजन विराजे हैं, विदेह क्षेत्र का दृश्य देखने में आ जाय ऐसी थोड़ी सी सुध रहती है तो उत्तर दिशा में मुख करने से उन ‘धर्मयोनियों’ का ध्यान रहता है। इस कारण उत्तर दिशा में मुख करके अथवा पूर्व दिशा में मुख करके ध्यान करने की बात आचार्यदेव ने बतायी है। वैसे ही कोई किसी भी दिशा में मुख करके ध्यान करने बैठ जाय, तत्त्वज्ञानी है, विरक्त है तो क्या उसके ध्यान न बनेगा? बनेगा, लेकिन एक आम रीति की बात है। तत्त्वज्ञानी विरक्त पुरुष तो किसी भी दिशा में मुख करके ध्यान करे, किसी भी आसन से ध्यान करे तो सिद्धि हो सकती है। नियम नहीं है कि ऐसा आसन लगाये तब ही वह धर्म का मुक्ति का पात्र होगा। अपने आपमें कोई दोष न हो, ऐब न हो, दूसरे का अकल्याण न विचारे, जो इस प्रकार शुद्ध आशय से अपने आपके दर्शन में लगता है ऐसा पुरुष ध्यान का उत्तम पात्र माना गया है। ध्यान करना हो तो एक तो यह ज्ञान रखना कि मैं ज्ञानस्वरूप हूँ और फिर पर के विकल्प न होना, अवश्यमेव ध्यान की सिद्धि होगी।