वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1317
From जैनकोष
चरणज्ञानसंपन्न जिताक्षा वीतमत्सरा:।
प्रागनेकास्ववस्थासु संप्राप्ता यमिन: शिवम्।।1317।।
अब ध्यान के स्वामी कौन हैं? इस संबंध में बता रहे हैं। मुख्य रूप से तो प्रमत्त मुनि जिनमें प्रमाद नहीं रहा, छठे और 7 वें गुणस्थान से ऊपर के मुनिराज तो मुख्य रूप से ध्यान के स्वामी हैं और उससे नीचे प्रमत्त जिनके प्रमाद हैं, अभी कषाय जीवित हैं ऐसे प्रमादी, किंतु सम्यग्दृष्टि जीव उपचार से स्वामी कहे गए हैं। प्रमाद नाम है आत्मा के हित में उत्साह न जगने का। जैसे यहाँ अनेक लोग बहुत अधिक श्रम करते हैं, रात दिवस अधिक परिश्रम किया करते हैं, रोजगार कि लिए, कृषि के लिए और अनेक अपनी आजीविका के लिए श्रम किया करते हैं लेकिन क्या वे निष्प्रमाद हैं? नहीं। प्रमाद का अर्थ है आत्मा की भलाई में उत्साह न जगना। मेरे आत्मा का कैसे कल्याण हो, कल्याण का क्या स्वरूप है ऐसी आत्मकल्याण के लिए इच्छा जगना सो निष्प्रमाद है और आत्महित में प्रमाद रहना सो प्रमाद है। जो जीव ज्ञानी हो गए पर प्रमाद नहीं निकला, तीव्र उत्साह नहीं जगा धर्म के लिए ऐसे ज्ञानी प्रमत्त पुरुष उपचार से ध्यान के स्वामी हैं और जिनके निष्प्रमादता उत्पन्न हुई है ऐसे तत्त्वज्ञानी जीव मुख्यरूप से ध्यान के स्वामी हो गए।