वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1316
From जैनकोष
पूर्वाशाभिमुख: साक्षादुत्तराभिमुखोऽपि वा।
प्रसन्नवदनो ध्याता ध्यानकाले प्रशस्यते।।1316।।
ऐसे योगी जो चारित्र और ज्ञान से संपन्न हैं, जिन्होंने इंद्रियों को जीत लिया है, जिनमें दूसरों के प्रति मात्सर्य और द्वेष नहीं है ऐसे योगीश्वर अनेक अवस्थावों में रहकर भी मोक्ष को प्राप्त हुए हैं। यहाँ आसन का प्रसंग चल रहा है। आसन स्थिर लगाने से चित्त में एकाग्रता होती है। ध्यान का कारण है कि आसन स्थिर रहे। पद्मासन से बैठे तो, , कायोत्सर्ग से बैठे तो, चित्त की एकाग्रता रहे तो ध्यान की सिद्धि है और उस ध्यान से मुक्ति की प्राप्ति है। लेकिन जो बड़े तत्त्वज्ञानी हैं, बज्र जैसा जिनका शरीर है, विषयों को जिन्होंने जीत लिया है ऐसे योगीश्वर किसी भी स्थिति में बैठे हों, एक पैर ऊँचा कर एक नीचा कर किसी भी बैठक में हों, ध्यान के आसन में भी न हों लेकिन ऐसे अनेक योगीश्वरों ने किसी अन्य आसन में रहकर ध्यान के बल से मुक्ति की प्राप्ति की है। एक अपना चित्त अपने वश में है तो उसको सब समृद्धि मिल गयी और जब चित्त वश नहीं रहता तो दूसरों से आशा रखता है, उनके वश बनता है और आशा बना बनाकर अपने को दु:खी बनाया जाता है। मन वश हो गया तो संकट दूर हो गए समझिये। एक कहावत है कि मन चंगा तो कठौती में गंगा। इसका तात्पर्य क्या है? एक कथा है कि एक चमार अपने द्वार पर बैठा जूते बना रहा था। सामने से निकला एक ब्राह्मण। चमार ने कहा राम राम। आप कहाँ जा रहे हैं? तो ब्राह्मण बोला कि हम गंगा नदी नहाने के लिए हरिद्वार जा रहे हैं।....किसलिए?....गंगामाई को फूल चढ़ाने के लिए।....अच्छा ये दो पैसे हमारे भी ले लो, इन्हें गंगामाई में चढ़ा देना, लेकिन गंगामाई जब अपने हाथ बाहर निकाले तब चढ़ाना। यों ही न चढ़ा देना। सस्ते जमाने की बात है। उस समय दो पैसे में पेट भी भर लिया जाता था। ब्राह्मण सोचता है कि वे दो पैसे अपने पास रख लेंगे और वापिस आकर चमार से कह देंगे कि तुम्हारे दोनों पैसे चढ़ा दिया। ब्राह्मण हो चला गया और उन दोनों पैसों को अपने खर्च में ले लिया। जब ब्राह्मण लौटकर आया तो चमार ने पूछा कि क्या आपने हमारे दो पैसे गंगामाई को चढ़ा दिये थ? तो ब्राह्मण कहता है― हाँ हाँ चढ़ा दिये थे।....तो क्या गंगामाई ने अपने हाथ बाहर निकाला था?....अरे बेवकूफ कहीं गंगामाई नदी से हाथ भी बाहर निकाला करती है। तो चमार बोला कि तुम्हारी श्रद्धा में, भक्ति में अभी कमी है। अरे हम तो वहाँ न जायेंगे, गंगामाई हमारी इस कठौती में ही हाथ निकाल लेगी। कुछ लोग यह देखने के लिए खड़े हो गए कि देखे तो सही कि यह चमार कैसे गंगामाई के हाथ अपनी इस कठौती में निकाल पाता है। आखिर हुआ क्या कि ये जो कौतूहल प्रिय व्यंतरदेव घूमा करते हैं वे आये उस कौतूहल को देखने। वह भी एक कौतूहल की बात थी। जब वह चमार गंगामाई का ध्यान करने बैठा तो एक व्यंतरदेव ने उस कठौती में से अपना हाथ निकाल दिया। तब से यह बात प्रसिद्ध हो गयी कि मन चंगा तो कठौती में गंगा। तो सारी बातें इस मन के नियंत्रण पर निर्भर हैं। आज मनुष्य इतना दु:खी क्यों हो रहे हैं कि मन पर नियंत्रण नहीं है। तो जितना मन नियंत्रित है, उन्हें उसका अच्छा फल मिलना है और जब मन नियंत्रित नहीं है तो चाहे कितना ही परभेट हो― मन ने एक चाह कर ली कि अमुक चीज खानी है तो जब मन नियंत्रण में नहीं रहता तब संकट सामने आ जाते हैं। तो जिन योगियों का मन वश में है, विषयों को जिन्होंने जीत लिया है, ध्यान, ज्ञान, तत्त्वज्ञान से जो संपन्न हैं ऐसे योगीश्वर किसी भी स्थिति में रहें तो ऐसे योगीश्वर पूर्वकाल में बिना किसी विशेष आसन के मोक्ष को प्राप्त हुए हैं। तो ध्यान के लिए सही बात यद्यपि बताया है अच्छे स्थान पर रहना, स्थिर आसन लगाना, प्राणायाम आदिक करना, पर जिनके तत्त्वज्ञान विशाल है ऐसे पुरुषों को अपने ज्ञान वैराग्य बल से बिना ही प्राणायाम, बिना ही आसन आदिक से मुक्ति की प्राप्ति हो गयी।