वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1323
From जैनकोष
अथासनजयं योगी करोतु विजितेंद्रिय:।
मनागपि न खिद्यंते समाधौ सुस्थिरासना:।।1323।।
जिस पुरुष को आसन का अभ्यास है उसको तो खेद नहीं होता, पर जिसे आसन का अभ्यास नहीं है उसके शरीर की स्थिरता नहीं रहती और समाधि के समय शरीर की विकलता से भी निश्चय से वह खेदरूप हो जाता है। आसन का अभ्यास न होने से शरीर में भी खेद बना रहता है और सीधी बात तो यह हे कि जिसने अपने आत्मा के सहजस्वरूप का निर्णय किया है और अपने को जिसने चिदानंदस्वरूप निरखा है उसके शरीर में खेद नहीं होता अथवा वह खेदरूप अपने को अनुभव नहीं करता। तब उस आत्मतत्त्व में अपना उपयोग स्थिर रखने के लिए बाह्यसाधन है आसन मारकर ध्यान करना।