वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1324
From जैनकोष
आसनाभ्यासवैकल्याद्यपु:स्थैयं न विद्यते।
खिद्यते त्वंगवैकल्यात्समाधिसमये ध्रुवम्।।1324।।
जिन्होंने आसन को जीत लिया है अर्थात् स्थिरता से अपना आसन लगा सकते हैं ऐसे योगी पुरुष उपद्रवों से भी पीड़ित हो जायें तो भी खेदरूप अनुभव नहीं करते और वहाँ भी थोड़ा अंदाज कर लेते हैं कि सामायिक में यदि ढीले-ढाले बैठे हों तो उस समय मच्छरों से बाधा ज्यादा मालूम पड़ेगी और जब आसन स्थिर करके सुदृढ़ होकर बैठ जायें तो मच्छरों से बाधा ज्यादा मालूम होती है, मच्छर वही हैं, उनकी वृत्ति वही है पर अपना-अपना मन बदल जाता हे। तो स्थिर आसन होने पर बहुत से उपसर्ग सह लेने में सुगमता हो जाती है। जिनका आसन स्थिर है ऐसे योगियों को वायु से भी ज्यादा बाधा नहीं पहुँचती। वह योगी पद्मासन मारकर देह को बिल्कुल दृढ़ करके बैठा रहता है, और जब देह को ढीला-ढाला करके बैठता है तो उसे वायु से भी बाधा मालूम होती है। इसी प्रकार गर्मी का आताप, सूर्य की गर्मी स्थिर आसन वाले को कम महसूस होती है। किसी गर्म जगह पर भी वह योगी बैठा हो, पर देह को स्थिर करके सुदृढ़ होकर यदि बैठ जाय तो उसके लिए वही जगह ठंडी बन जायगी। पसीने से, पानी से, किसी से भी स्थिर आसन से बैठने वाले योगी को बाधा नहीं मालूम होती। इसी प्रकार तुषार से भी उस स्थिर आसन वाले योगी को बाधा नहीं मालूम होती। बहुत से जंतु समूह के द्वारा भी पीड़ित हो जाय तो भी स्थिर आसन का करने वाला योगी पुरुष पीड़ित नहीं होता। ध्यान का साधन स्थिर आसन में रहता है। उस स्थिर आसन में ऐसा गुण है कि सुगमतया चित्त बाह्य पदार्थों में जाने से रुक जाता है और आपके जानने में, अनुभवन में वह विशेष उत्सुक रहता है और सफल भी होता है। तो यों जिसने आसन को जीत लिया ऐसे साधु पुरुष अनेक उपद्रव और उपसर्गों से पीड़ित होने पर भी खेदरूप नहीं बनते हैं।