वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1329
From जैनकोष
भ्रूवल्लीविक्रियाहीनं सुश्लिष्टाधरपल्लवम्।
सुप्तमत्स्यहृदप्रायं विदध्यान्मुखपंकजम्।।1329।।
योगी साधुवों को चाहिए कि अपने शरीर को अगाध दया के समुद्र में मग्न हो गया है सम्वेद सहित मन जिनका, ऐसा सीधा और लंबा रखें। जैसे दीवार पर चित्र उकेरे जाते हैं तो वे खड़े स्थिर होते हैं, इस ही प्रकार अपने मन को ऐसा सीधा धर्मानुरागी दया से भीगा हुआ बनायें तो ऐसे हृदय में ध्यान की साधना का विशेष अवसर होता है।