वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1330
From जैनकोष
अगाधकरुणांभोधौ मग्न: संविग्नमानस:।
ऋज्वायतं वपुर्धत्ते प्रशस्तं पुस्तमूर्तिवत्।।1330।।
मुनि जब ध्यान का आसन जमाकर बैठता है तब उसे ऐसा होना चाहिए कि प्रथम तो भेदविज्ञानरूप समुद्र की लहरों से निर्मल हुआ मन बने। सर्वसुखों का आधार भेदविज्ञान है। संसार से छुटकारा पाने का उपाय भेदविज्ञान है। ध्यानार्थी पुरुष को प्रथम तो भेदविज्ञानरूप समुद्र की कल्लोलों से निर्मल मन वाला बनना चाहिए, फिर ज्ञानरूप मंच से निकाल दिया है समस्त रागादिक विषम गृह पिशाच जिसने, ऐसे हों। प्रथम तो तत्त्वज्ञान हो, भेदविज्ञान हो और फिर वह ज्ञानभेद को छोड़कर अभेदस्वरूप अपने आत्मा में लगे। बहुत देर में सब पदार्थों को निरखकर यह ज्ञान किया कि प्रत्येक पदार्थ एक दूसरे से अत्यंत जुदे हैं। इस भेदविज्ञान के प्रताप से आकुलता-व्याकुलता नहीं रहती। जहाँ यह निर्णय हो गया कि मैं तो अकेला अपने ज्ञानानंदस्वरूप मात्र हूँ। जब यों निर्णय कर लिया गया तो फिर उसे विह्वलता किस बात की? विह्वल तो लोग परपदार्थों में आत्मीयता और ममता का भाव बनाकर होते हैं। मान लो किसी प्रकार अन्याय से या अपने आपमें ममता आदिक विकारों के कारण कुछ उद्यम हो, सो इस कारण थोड़ा बहुत वैभव इकट्ठा हो गया या अपना थोड़ा यश हो गया, पर उससे लाभ क्या? योगी पुरुष को चाहिए कि वह सर्वप्रथम सर्व पदार्थों का परस्पर में भेद निर्णय करें और फिर दूसरे पदार्थों को भूल ही जायें, जिनसे न्यारा अपने आपके आत्मा को जाना जा रहा था। अब तो आखिरी सीधी उस अपने आपके स्वरूप की भावना रखें, इस उपासना के प्रताप से सर्व लौकिक संकट दूर हो जाते हैं। तो ये ध्यानार्थी पुरुष इस ज्ञानरूपी मंत्र के द्वारा समस्त रागादिक विभावों को दूर कर देते हैं, इसी कारण रागादिक विषम गृह, दैत्य, राक्षस, पिशाच ये पीछा छोड देते हैं, ऐसे पुरुष भी आत्मा के ध्यान में सफल होते हैं।